सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की गिरफ्तारी से सुरक्षा हटाई, कहा-जाँच जारी रहते हुए Blanket Protection नहीं दी जा सकती

By Shivam Y. • December 20, 2025

उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम मोहम्मद अरशद खान, सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद HC के गिरफ्तारी न करने के आदेश को पलट दिया, कहा कि हथियार लाइसेंस जालसाजी मामले में FIR रद्द करने से इनकार करते हुए सुरक्षा नहीं दी जा सकती।

जब पीठ ने आदेश लिखवाना शुरू किया, तो अदालत कक्ष में असामान्य सन्नाटा था। मुद्दा वही पुराना लेकिन पेचीदा - जब कोई एफआईआर रद्द नहीं की जाती, तब हाईकोर्ट कितनी दूर तक जा सकता है? गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की अपीलों पर सुनवाई करते हुए इस सवाल का साफ जवाब दिया। मामला आगरा में कथित तौर पर जाली दस्तावेज़ों के ज़रिए शस्त्र लाइसेंस हासिल करने से जुड़ा था।

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राज्य का कहना था कि हाईकोर्ट के आदेशों ने जाँच एजेंसियों के हाथ बाँध दिए हैं। शीर्ष अदालत इस दलील से सहमत दिखी।

पृष्ठभूमि

इस पूरे मामले की शुरुआत एक गुमनाम शिकायत से हुई, जिस पर एसटीएफ ने जाँच की। जाँच में सामने आया कि कई शस्त्र लाइसेंस कथित रूप से फर्जी पहचान पत्रों और झूठे हलफनामों के आधार पर हासिल किए गए। मई 2025 में दर्ज एफआईआर में धोखाधड़ी और जालसाजी से जुड़े आईपीसी के प्रावधानों के साथ-साथ आर्म्स एक्ट की धाराएँ लगाई गईं।

तीन अभियुक्तों - जिनमें जिला प्रशासन का एक सेवानिवृत्त आर्म्स क्लर्क भी शामिल था - ने एफआईआर रद्द कराने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया। हाईकोर्ट ने एफआईआर रद्द करने से इनकार किया, लेकिन साथ ही जाँच 90 दिनों में पूरी करने और संज्ञान लेने तक अभियुक्तों की गिरफ्तारी न करने का निर्देश दे दिया।

ये आदेश मुख्य रूप से शोभित नेहरा मामले पर आधारित थे, जिसमें इसी तरह की अंतरिम सुरक्षा दी गई थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने इसी दृष्टिकोण को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।

अदालत की टिप्पणियाँ

न्यायमूर्ति संजय करोल ने पीठ की ओर से कहा कि आपराधिक जाँच कभी भी सीधी रेखा में नहीं चलती। गवाह पलट जाते हैं, दस्तावेज़ बेकार साबित हो सकते हैं और अदालतें बीच रास्ते में हस्तक्षेप करती हैं। पीठ ने टिप्पणी की, “जाँच की प्रक्रिया उतार-चढ़ाव और बार-बार पुनर्मूल्यांकन से भरी होती है,” और शुरुआती स्तर पर अव्यावहारिक समय-सीमा तय करने के ख़िलाफ़ चेताया।

साथ ही अदालत ने स्पष्ट किया कि समयबद्ध जाँच के निर्देश यांत्रिक ढंग से नहीं दिए जा सकते। ऐसे निर्देश तभी उचित हैं, जब रिकॉर्ड पर साफ तौर पर ठहराव या अनुचित देरी दिखाई दे। पीठ ने कहा, “समय-सीमा प्रतिक्रियात्मक होती है, एहतियातन नहीं।”

गिरफ्तारी से सुरक्षा के सवाल पर अदालत और सख़्त रही। नीहारिका इंफ्रास्ट्रक्चर मामले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि जब एफआईआर रद्द करने से इनकार किया जाए, तब ‘गिरफ्तारी न करने’ का आदेश देना क़ानूनन टिकाऊ नहीं है। अदालत ने कहा, “ऐसे निर्देश बिना वैधानिक शर्तें पूरी किए अग्रिम ज़मानत देने जैसे हैं।”

पीठ ने इस बात पर भी आपत्ति जताई कि हाईकोर्ट ने शोभित नेहरा के फैसले को बिना तथ्यों की तुलना किए लागू कर दिया। अदालत ने याद दिलाया कि मिसालें आँख मूँदकर नहीं, बल्कि संदर्भ और तथ्यों के आधार पर लागू की जाती हैं।

निर्णय

राज्य की अपीलें स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा तय की गई 90 दिनों की जाँच-सीमा और गिरफ्तारी से दी गई सुरक्षा- दोनों को रद्द कर दिया। पीठ ने आदेश दिया कि जो अंतरिम सुरक्षा पहले से लागू है, वह केवल अगले दो सप्ताह तक जारी रहेगी, उसके बाद “क़ानून के अनुसार सभी कार्रवाई” की जा सकेगी।

Case Title: State of Uttar Pradesh & Anr. vs Mohd. Arshad Khan & Ors. (Arms Licence Forgery Case)

Case No.: Criminal Appeal Nos. 5610–5612 of 2025 (arising out of SLP (Crl.) Nos. 17272, 17579 & 18150 of 2025)

Case Type: Criminal Appeal (Challenge to High Court’s interim protection from arrest and investigation timeline)

Decision Date: December 19, 2025

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