इस हफ्ते सुप्रीम कोर्ट परिसर के अंदर एक शांत लेकिन बेहद महत्वपूर्ण क्षण उभरा, जब सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग (CRP) के अधिकारियों ने माहवारी अवकाश पर विस्तृत श्वेत पत्र प्रस्तुत किया। यह कोई औपचारिक सुनवाई नहीं थी, लेकिन माहौल वैसा ही लग रहा था-जज, शोधकर्ता और वरिष्ठ अधिकारी उस बात पर चर्चा कर रहे थे जिस पर भारत में अनगिनत कर्मचारी वर्षों से फुसफुसाते रहे हैं: आख़िर कार्यस्थलों पर माहवारी को अब भी अदृश्य बोझ की तरह क्यों माना जाता है?
दस्तावेज़ ने मुद्दे को सीधे संविधान के ढाँचे में रखा। बातचीत के दौरान एक वरिष्ठ अधिकारी ने सहजता से कहा, “अगर गरिमा एक संवैधानिक गारंटी है, तो मासिक धर्म के दर्द को नज़रअंदाज़ करना मूलतः गरिमा को नज़रअंदाज़ करना है।” कोर्टरूम में कई लोगों ने सिर हिलाया, और कुछ ने हल्की-सी झेंपी भरी मुस्कान भी दी-क्योंकि बात बिल्कुल सटीक थी।
माहवारी: कार्यस्थल पर एक वास्तविक बाधा
श्वेत पत्र सख़्त चिकित्सीय वास्तविकताओं से शुरू होता है-दर्द, थकान, मतली, PCOS, एंडोमेट्रियोसिस और कई अन्य स्थितियां जो अक्सर कर्मचारियों की कार्यक्षमता को बाधित करती हैं। फिर भी कार्यस्थल ऐसा दिखाते हैं जैसे सब ठीक-ठाक होना चाहिए। एक CRP शोधकर्ता ने कहा, “‘प्रेज़ेंटिज़्म’ सच है-लोग दर्द में भी काम पर आते हैं, और फिर भी उत्पादकता गिरती है। हमें यह दिखावा बंद करना होगा कि दर्द हाज़िरी रजिस्टर के दबाव से गायब हो जाता है।”
दस्तावेज़ कहता है कि माहवारी अवकाश कोई “सुविधा” नहीं बल्कि स्वास्थ्य आधारित अधिकार है, जो अनुच्छेद 21 के गरिमा और जीवन के अधिकार से जुड़ा है। यह अनुच्छेद 15(3) का भी हवाला देता है, जो महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान की अनुमति देता है-और फिर NALSA निर्णय का संदर्भ देकर बताता है कि “सेक्स” में जेंडर आइडेंटिटी भी शामिल है, यानी ट्रांसजेंडर और नॉन-बाइनरी माहवारी करने वाले भी इस नीति का हिस्सा होने चाहिए।
यह बिंदु आते ही माहौल थोड़ा बदल गया। एक CRP सदस्य ने कहा, “नीतियां 1950 के जीवविज्ञान में अटकी नहीं रह सकतीं। माहवारी केवल सिस महिलाओं का अनुभव नहीं है-कानून को ज़मीनी हकीकतें देखनी होंगी।”
संविधानिक जड़ें, आधुनिक ज़रूरतें
श्वेत पत्र संवैधानिक सभाओं की बहसों से लेकर नवीनतम सुप्रीम कोर्ट निर्णयों तक की यात्रा दिखाता है। विषाखा, सुषिता, पुट्टस्वामी और हालिया जैन कौशिक जैसे फैसलों को जोड़ते हुए यह बताता है कि माहवारी अवकाश उसी अधिकार-ढांचे का विस्तार है जो गरिमा, स्वास्थ्य, समानता और गोपनीयता पर आधारित है।
एक अधिकारी ने इसे सरल शब्दों में कहा: “जब हम मातृत्व को जैविक वास्तविकता मानते हैं, तो माहवारी क्यों नहीं-जो कई लोगों के लिए हर महीने और जीवनभर की वास्तविकता है?”
नीति की असमानताएँ और व्यावहारिक चुनौतियाँ
बिहार, ओडिशा, केरल, कर्नाटक और कई विश्वविद्यालयों ने माहवारी अवकाश दिया है, लेकिन पूरे देश में एकरूपता बिल्कुल नहीं है। कुछ छात्र संस्थानों में उपस्थिति छूट मिलती है, लेकिन अधिकतर सरकारी-निजी क्षेत्रों में कर्मचारी ‘समायोजन’ या ‘कृपा’ पर निर्भर रहते हैं।
और ट्रांस समुदाय? श्वेत पत्र साफ़ कहता है-ज्यादातर योजनाएँ उन्हें दृष्टि से ही गायब मानती हैं।
अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण
जापान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, ताइवान, ज़ाम्बिया-कई देशों के उदाहरण शामिल किए गए हैं। लेकिन रिपोर्ट चेतावनी देती है कि कानूनी अधिकार होने के बावजूद सामाजिक शर्म के कारण कई लोग छुट्टी लेते ही नहीं।
एक CRP अधिकारी ने कहा, “भारत को इससे सीखना होगा-अगर समाज ही जज कर रहा है तो कानूनी अधिकारों का फायदा कौन उठाएगा?”
कोर्ट का अप्रत्यक्ष संकेत
बैठक का कोई औपचारिक आदेश नहीं आया-क्योंकि यह कोई मुकदमा नहीं था। पर मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय ने CRP को रिपोर्ट को व्यापक रूप से प्रसारित करने के लिए प्रेरित किया। श्वेत पत्र का अंतिम संदेश बिल्कुल सीधा है: माहवारी अवकाश समानता बढ़ाता है, कार्यबल भागीदारी मजबूत करता है और भारत को आधुनिक मानवाधिकार मानकों के अनुरूप लाता है।
संक्षेप में, सुप्रीम कोर्ट के पास अब एक शोध-आधारित, संवैधानिक और सामाजिक रूप से संतुलित रोडमैप है। आगे कदम सरकार या संसद उठाएगी-लेकिन आज की चर्चा के बाद माहौल साफ है: बदलाव का पहिया चल पड़ा है।
Document Title: White Paper on Menstrual Leave – Supreme Court of India
Prepared By: Centre for Research and Planning (CRP), Supreme Court of India
Document Type: Policy White Paper
Publication Month & Year: November 2025