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अनुमति के स्पष्ट अभाव से सेक्शन 14 के अंतर्गत लिमिटेशन लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता: कलकत्ता हाईकोर्ट

Prince V.

कलकत्ता हाईकोर्ट ने निर्णय दिया कि यदि निष्पादन मामला क्षेत्राधिकार के अभाव में वापस लिया गया हो, तो भले ही दोबारा दाखिल करने की अनुमति स्पष्ट रूप से न दी गई हो, फिर भी यदि उद्देश्य स्पष्ट है तो लिमिटेशन एक्ट की धारा 14 के तहत लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता।

अनुमति के स्पष्ट अभाव से सेक्शन 14 के अंतर्गत लिमिटेशन लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता: कलकत्ता हाईकोर्ट

कलकत्ता हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि जब किसी निष्पादन याचिका को क्षेत्राधिकार की कमी के कारण वापस लिया जाता है, तो केवल इस आधार पर कि अदालत ने पुनः दाखिल करने की स्पष्ट अनुमति नहीं दी, लिमिटेशन एक्ट, 1963 की धारा 14 के तहत लाभ से इनकार नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति विभास रंजन दे ने एक मध्यस्थता पुरस्कार के निष्पादन से संबंधित मामले में यह निर्णय सुनाया, जिसमें उन्होंने कहा कि यदि याचिका वापस लेने के आवेदन में कारण स्पष्ट रूप से दर्ज है—जैसे कि क्षेत्राधिकार में दोष—तो गलत फोरम में व्यतीत समय को बाहर करने के लिए धारा 14 लागू होगी।

यह मामला राधा कृष्ण पोद्दार द्वारा दायर टाइटल निष्पादन केस नंबर 9 ऑफ 2002 से शुरू हुआ था, जो 22 दिसंबर 2001 के मध्यस्थता पुरस्कार को निष्पादित करने के लिए दायर किया गया था। 24 अगस्त 2014 को उनके निधन के बाद, उनके कानूनी वारिसों को 30 अक्टूबर 2014 के आदेश द्वारा पक्षकार के रूप में प्रतिस्थापित किया गया। वर्ष 2018 में उन्हें यह ज्ञात हुआ कि दीवानी न्यायाधीश के पास इस पर सुनवाई का अधिकार नहीं था, जिसके बाद उन्होंने निष्पादन याचिका वापस ली और अलीपुर के जिला न्यायाधीश के समक्ष आर्बिट्रेशन निष्पादन केस संख्या 535 ऑफ 2018 दायर किया। यह मामला बाद में 15वीं और फिर 6वीं अतिरिक्त जिला न्यायाधीश की अदालत में स्थानांतरित किया गया।

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इस निष्पादन प्रक्रिया के दौरान डिक्री धारकों ने सिविल प्रक्रिया संहिता की आदेश 21 नियम 37 और 38 तथा धारा 151 के तहत आवेदन दायर किया। वहीं, जजमेंट डेब्टर्स ने धारा 47 सीपीसी के तहत आपत्ति दर्ज की, जिसमें डिक्री की निष्पादन क्षमता को चुनौती दी गई। हालांकि, निष्पादन अदालत ने इस आपत्ति को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वह डिक्री के बाहर नहीं जा सकती।

याचिकाकर्ताओं ने इस निर्णय को कलकत्ता हाईकोर्ट में चुनौती दी। उनका तर्क था कि बिना स्पष्ट अनुमति के निष्पादन याचिका को वापस लेना एक अंतिम निष्पादन के बराबर है, और इसलिए धारा 14 का लाभ नहीं मिल सकता। उनके अनुसार, केवल खामी की जानकारी होना लाभ पाने के लिए पर्याप्त नहीं है।

इसके विपरीत, डिक्री धारकों का कहना था कि धारा 47 के तहत दायर आपत्ति मध्यस्थ की नियुक्ति और डिक्री की वैधता को सीधे चुनौती देती है, जिसे निष्पादन की प्रक्रिया में नहीं उठाया जा सकता। उन्होंने कहा कि ऐसे क्षेत्राधिकार संबंधी विवादों का समाधान मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 16 के तहत किया जाना चाहिए और गलत फोरम में व्यतीत समय को लिमिटेशन एक्ट की धारा 14 के अनुसार बाहर किया जाना चाहिए।

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"कोर्ट ने यह माना कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली डिवेलपमेंट अथॉरिटी बनाम दुर्गा कंस्ट्रक्शन कंपनी में यह स्पष्ट किया गया है कि प्रथम बार याचिका दायर करने में देरी और दोबारा दाखिला अलग-अलग स्थितियाँ हैं। यदि किसी याचिकाकर्ता ने पुनः दाखिला किया है, तो यह उसकी मंशा को दर्शाता है कि वह कानूनी उपचार चाहता है, न कि मामला छोड़ना।"

कोर्ट ने विद्या डोलिया बनाम दुर्गा ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि मध्यस्थता की वैधता और क्षेत्राधिकार से जुड़ी आपत्तियाँ विभिन्न चरणों पर—धारा 8 या 11 के तहत अदालत में, धारा 16 के तहत मध्यस्थता न्यायाधिकरण में, और पुरस्कार निष्पादन के समय—उठाई जा सकती हैं। ये मध्यस्थता प्रक्रिया में आवश्यक सुरक्षा उपाय हैं।

हाईकोर्ट ने यह भी बताया कि 7 सितंबर 2018 को दाखिल याचिका की धारा 15 में स्पष्ट रूप से क्षेत्राधिकार की कमी के आधार पर याचिका वापस लेने और उपयुक्त फोरम में पुनः दाखिल करने की मंशा दर्ज की गई थी। 29 सितंबर 2018 के आदेश में यद्यपि पुनः दाखिल करने की स्पष्ट अनुमति नहीं दी गई, परंतु इस अनुरोध को खारिज भी नहीं किया गया।

"जब याचिका स्पष्ट रूप से क्षेत्राधिकार की कमी के आधार पर वापस ली गई हो और अदालत ने पुनः दाखिल करने के विरोध में कुछ न कहा हो, तो केवल अनुमति की अनुपस्थिति के आधार पर धारा 14 का लाभ नहीं रोका जा सकता," कोर्ट ने कहा।

कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि टाइटल निष्पादन याचिका के माध्यम से मध्यस्थता पुरस्कार को निष्पादित नहीं किया जा सकता, इसलिए 2002 में दायर की गई याचिका अयोग्य फोरम में थी। इसके बाद दायर की गई आर्बिट्रेशन निष्पादन केस संख्या 535 ऑफ 2018 ही सही प्रक्रिया थी और पहले मामले में व्यतीत समय को लिमिटेशन से बाहर किया जाना चाहिए।

इसके अनुसार, कलकत्ता हाईकोर्ट ने वर्तमान याचिका को खारिज कर दिया और डिक्री धारकों के निष्पादन की प्रक्रिया जारी रखने के अधिकार को बरकरार रखा।

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तथ्यों और विधिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए याचिका खारिज की जाती है, कोर्ट ने निष्कर्ष में कहा।

मामले का नाम: श्री अरुण कुमार जिंदल एवं अन्य बनाम श्रीमती रजनी पोद्दार एवं अन्य
मामला संख्या: C.O. 441 ऑफ 2023
निर्णय तिथि: 29 अप्रैल 2025
पीठ: न्यायमूर्ति विभास रंजन दे
याचिकाकर्ताओं की ओर से: श्री सुभासिस सरकार, श्री सुब्रत भट्टाचार्य, श्री बिक्रमजीत मंडल, श्री शेख मुस्ताफी रहमान
प्रतिवादियों की ओर से: श्री चयन गुप्ता, श्री ऋत्तिक चौधरी, श्री शोहम सान्याल

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