भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न अनसुलझा छोड़ दिया है—क्या लोकायुक्त किसी सरकारी कर्मचारी पर लगाए गए दंड को रद्द करने वाले प्रशासनिक न्यायाधिकरण के निर्णय को कानूनी रूप से चुनौती दे सकता है।
यह मामला न्यायमूर्ति सूर्यकांत और दीपांकर दत्ता की पीठ के समक्ष आया। लोकायुक्त ने कर्नाटक हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ अपील की थी, जिसने कर्नाटक राज्य प्रशासनिक न्यायाधिकरण द्वारा एक सरकारी अधिकारी पर लगाए गए अनिवार्य सेवानिवृत्ति के दंड को रद्द करने के फैसले को चुनौती देने वाली लोकायुक्त की याचिका खारिज कर दी थी।
पीठ ने यह देखा कि अनुशासनिक प्राधिकारी—जिसने मूल रूप से दंड लगाया था—ने न्यायाधिकरण के उस निर्णय को चुनौती नहीं दी थी जिससे सेवानिवृत्ति का आदेश रद्द किया गया। इसके बजाय, यह लोकायुक्त, जो एक अर्ध-न्यायिक प्राधिकारी है, ने चुनौती दी थी क्योंकि उसे मूल कार्यवाही में पक्षकार बनाया गया था।
न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा:
“आपको तो पक्षकार बनाए जाने की आवश्यकता ही नहीं थी, उन्होंने आपको पक्षकार बना दिया, इसलिए आप [...] मामलों का हवाला दे रहे हैं...आप कह रहे हैं कि न्यायाधिकरण ने गलती की...क्या अनुशासनिक प्राधिकारी आया है? क्या वह प्रभावित हुआ है? आप कौन हैं!? जब भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के मामले में आपराधिक न्यायालय द्वारा आरोपी को बरी कर दिया गया है, जब मांग और स्वीकार्यता सिद्ध नहीं हुई, तो अनुशासनिक कार्यवाही में आप इसे कैसे सिद्ध करेंगे!?”
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पीठ ने लोकायुक्त की चुनौती के आधार पर सवाल उठाया, खासकर जब अनुशासनिक प्राधिकारी ने स्वयं इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि आरोपी को संबंधित भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के आपराधिक मामले में बरी कर दिया गया था, जिससे यह और स्पष्ट हुआ कि जब आपराधिक अदालत में आरोप सिद्ध नहीं हो पाए तो अनुशासनिक कार्रवाई को न्यायसंगत ठहराना कठिन हो जाता है।
केस का शीर्षक: माननीय लोकायुक्त और अन्य। बनाम मोहन डोड्डामणि और अन्य, डायरी संख्या 17688-2025