भारत के सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक अहम टिप्पणी में सुझाव दिया कि अप्रतिस्पर्धी चुनावों में उम्मीदवारों को विजेता घोषित करने से पहले एक न्यूनतम वोट प्रतिशत प्राप्त करना आवश्यक होना चाहिए। यह टिप्पणी विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान की गई, जिसमें जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 53(2) की वैधता को चुनौती दी गई है।
धारा 53(2) के अनुसार, यदि कोई उम्मीदवार बिना विरोध के चुनाव लड़ रहा हो, तो उसे बिना मतदान के ही निर्वाचित घोषित किया जा सकता है। याचिकाकर्ता का तर्क है कि यह प्रावधान मतदाताओं को सभी उम्मीदवारों को खारिज करने के उनके अधिकार (NOTA विकल्प) से वंचित करता है।
सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने अप्रतिस्पर्धी चुनावों में लोकतांत्रिक निष्पक्षता पर चिंता व्यक्त की। याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद पी. दातार ने बताया कि हालांकि चुनाव आयोग ने केवल 9 मामलों की बात की है, राज्य विधानसभाओं में कई बार ऐसा हुआ है।
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न्यायमूर्ति कांत ने कहा:
"ऐसा कोई तंत्र बनाना, जिसमें अप्रतिस्पर्धी उम्मीदवारों को कम से कम 10% या 15% वोट प्राप्त करना अनिवार्य हो, एक प्रगतिशील कदम होगा... अन्यथा मतदाताओं के पास कोई विकल्प नहीं बचता।"
दातार ने कहा कि यदि सभी उम्मीदवार नामांकन वापस ले लें और केवल एक ही बचा रहे, जो शायद जनता को स्वीकार्य न हो, तब भी मतदाताओं के पास उसे चुनने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता। उन्होंने सवाल उठाया कि जब किसी उम्मीदवार को न्यूनतम समर्थन भी नहीं मिलता, तब उसे निर्वाचित घोषित करना क्या लोकतंत्र की भावना के अनुरूप है?
न्यायमूर्ति कांत ने इस पर सहमति जताई:
"अगर एक ही उम्मीदवार बचा रह जाए और डिफॉल्ट से निर्वाचित हो जाए, तो मतदाता असहाय हो जाते हैं। यह प्रणाली लोकतांत्रिक भागीदारी को कमजोर करती है।"
चुनाव आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने बताया कि पिछले 25 वर्षों में संसद में केवल एक ही अप्रतिस्पर्धी चुनाव हुआ है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार के व्यापक चुनावी सुधार संसद का विषय हैं।
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महान्यायवादी आर. वेंकटरमणी ने भी कहा कि इस तरह के सुझावों की वांछनीयता को आधार बनाकर किसी कानून को अमान्य नहीं ठहराया जा सकता। न्यायमूर्ति कांत ने स्पष्ट किया कि कोर्ट किसी कानून को असंवैधानिक घोषित नहीं कर रहा, बल्कि केवल विचार हेतु सुझाव दे रहा है:
"हम कोई कानून रद्द नहीं कर रहे। हम केवल इतना कह रहे हैं कि सरकार मौजूदा कानून में कुछ जोड़ने पर विचार करे।"
कोर्ट ने एक विशेषज्ञ समिति गठित करने का सुझाव भी दिया जो इस सुझाव की व्यवहार्यता पर अध्ययन कर सके। केंद्र को विस्तृत हलफनामा दाखिल करने के लिए समय दिया गया।
याचिकाकर्ता ने चुनाव नियम, 1961 के नियम 11 और प्रपत्र 21 व 21B को भी चुनौती दी है, जो अप्रतिस्पर्धी उम्मीदवारों को निर्वाचित घोषित करने की प्रक्रिया को वैध रूप देते हैं।
याचिका में 2019 में सूरत लोकसभा सीट का उदाहरण दिया गया है, जहां एकमात्र उम्मीदवार को निर्विरोध विजेता घोषित किया गया था। याचिकाकर्ता का कहना है कि अब तक लोकसभा और विधानसभा चुनावों में 258 उम्मीदवार बिना चुनाव के निर्वाचित हो चुके हैं।
याचिका में "पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2013)" के फैसले का हवाला दिया गया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में NOTA का विकल्प देना अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत मतदाता के अभिव्यक्ति के अधिकार का हिस्सा है।
सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणियाँ मतदाता अधिकारों की रक्षा और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सशक्त बनाने की दिशा में एक अहम संकेत हैं।
केस का शीर्षक: विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य, डब्ल्यू.पी.(सी) संख्या 677/2024