जम्मू और कश्मीर एवं लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में पहलगाम में भूमि अदला-बदली से जुड़े 1944 के ऐतिहासिक सरकारी आदेश को बरकरार रखते हुए यह साफ़ कर दिया कि प्रशासनिक देरी और वन विभाग की आपत्तियाँ वर्षों पुराने वैध अधिकारों को नहीं मिटा सकतीं।
यह मामला हलीमा ट्रैम्बू द्वारा दायर याचिका से जुड़ा था, जिन्हें सरकारी आदेश संख्या 60-C, 1944 के तहत पहलगाम में भूमि दी गई थी। इस आदेश के तहत सरकार ने पर्यटन और संरक्षण के लिए ज़मीन ली थी और बदले में प्रभावित ज़मीन मालिकों को वैकल्पिक ज़मीन दी गई थी। हलीमा को 1989 में वैध अनुमति मिल चुकी थी और उन्होंने 2005–06 में निर्माण की अनुमति मांगी थी, लेकिन वन विभाग लगातार एनओसी (No Objection Certificate) देने से इनकार करता रहा, यह कहते हुए कि ज़मीन वन क्षेत्र में आती है।
"वन विभाग सरकार के 1944 के आदेश से उत्पन्न वैध अधिकारों को एकतरफा नकार नहीं सकता,"
— न्यायमूर्ति जावेद इकबाल वानी
अदालत ने कहा कि 1944 का आदेश जम्मू-कश्मीर संविधान अधिनियम 1939 के तहत वैध रूप से जारी हुआ था और कभी रद्द नहीं किया गया। इसलिए यह आज भी कानूनन प्रभावी है और वर्षों बाद उठाई गई आपत्तियों के आधार पर इसे निरस्त नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने वन विभाग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि 2010 की विभागीय रिपोर्ट में उस ज़मीन पर सिर्फ 17 हरे और एक सूखा पेड़ था, जो निर्माण रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है।
“केवल पुराने रिकॉर्ड में ज़मीन को ‘वन क्षेत्र’ बताना, वर्तमान मास्टर प्लान के तहत उपयोग से रोकने का वैध आधार नहीं है,”
— कोर्ट ने स्पष्ट किया
कोर्ट ने मोहम्मद शफी ट्रैम्बू बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य के पूर्व निर्णय का हवाला दिया, जिसमें इसी आदेश को सही ठहराया गया था। अदालत ने कहा कि यदि ज़मीन पर घना वृक्षारोपण न हो और स्वामित्व स्पष्ट हो, तो मास्टर प्लान 2032 के अनुसार उस पर निर्माण की अनुमति दी जा सकती है।
पहलगाम विकास प्राधिकरण द्वारा दी गई यह आपत्ति कि ज़मीन कृषि उपयोग के लिए है, को भी कोर्ट ने खारिज कर दिया। न्यायमूर्ति वानी ने बताया कि यह ज़मीन बंजर-ए-क़दीम (अकृषि योग्य) है और वहां कभी खेती नहीं हुई।
दूसरी ओर, हिमालयन वेलफेयर ऑर्गेनाइजेशन द्वारा दायर जनहित याचिका को भी कोर्ट ने खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता की कोई वैध स्थिति (locus standi) नहीं थी और उसने जनहित याचिका के नियमों का पालन नहीं किया।
“याचिकाकर्ता द्वारा वन संरक्षण अधिनियम 1980 को 1944 के आदेश पर लागू करना कानूनन और तथ्यात्मक रूप से गलत है,”
— कोर्ट ने कहा
यह अधिनियम 1980 में लागू हुआ और जम्मू-कश्मीर में केवल 2019 के बाद लागू हुआ। इसलिए इसे पीछे जाकर पुराने आदेश पर लागू नहीं किया जा सकता।
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न्यायमूर्ति वानी ने यह भी बताया कि 1944 की योजना के तहत अधिकांश ज़मीनें पहले ही लोगों को दी जा चुकी हैं और वहां निर्माण हो चुका है। ऐसे में सिर्फ इस याचिकाकर्ता को अनुमति न देना भेदभावपूर्ण है।
हलीमा ट्रैम्बू की याचिका को स्वीकार करते हुए अदालत ने अनंतनाग के डिप्टी कमिश्नर को आदेश दिया कि वह ज़मीन के मूल्यांकन और आवंटन की प्रक्रिया तुरंत पूरी करें। साथ ही कोर्ट ने ₹20,000 का जुर्माना भी लगाया, क्योंकि विरोधी पक्ष ने न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग किया था।
“इतिहास में दर्ज एक वैध प्रशासनिक नीति को प्रशासनिक लापरवाही के कारण खत्म करना, क़ानूनी निष्पक्षता के खिलाफ है,”
— न्यायमूर्ति वानी ने टिप्पणी की
केस का शीर्षक: हलीमा ट्रैंबू बनाम यूटी ऑफ जेएंडके, हिमालयन वेलफेयर ऑर्गनाइजेशन बनाम यूटी ऑफ जेएंडके