एक अहम फैसले में केरल हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि सेट-ऑफ अवधि — यानी मुकदमे से पहले की हिरासत में बिताया गया समय — को जेल नियमों के अंतर्गत सजा माफी (रिमिशन) की गणना में नहीं जोड़ा जा सकता।
यह निर्णय न्यायमूर्ति डॉ. कौसर एडप्पगाथ ने उस आपराधिक रिट याचिका (WP(Crl.) No. 82 of 2025) को खारिज करते हुए दिया, जो कि रूपेश नामक दोषी की पत्नी शाइना पी.ए. ने दायर की थी। रूपेश इस समय केंद्रीय जेल, विय्यूर में सजा काट रहा है।
रूपेश को 12 अप्रैल 2024 को भारतीय दंड संहिता और गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम की कई धाराओं के तहत दोषी ठहराया गया था। उसे मुकदमे से पहले की हिरासत (9 जुलाई 2015 से 11 अप्रैल 2024) के लिए सेट-ऑफ प्रदान किया गया — कुल 8 साल, 9 महीने और 3 दिन। उसे अधिकतम 10 वर्ष की सजा सुनाई गई थी।
याचिकाकर्ता का तर्क था कि यह सेट-ऑफ अवधि भी सजा माफी की गणना में शामिल की जानी चाहिए, जैसा कि केरल जेल एवं सुधार सेवाएं (प्रबंधन) अधिनियम, 2010 की धारा 72 और संबंधित 2014 के नियमों में उल्लेखित है। ट्रायल कोर्ट ने पहले जेल प्रशासन को निर्देश दिए थे कि वे सेट-ऑफ अवधि को रिमिशन की गणना में शामिल करें। लेकिन जेल अधिकारियों ने इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, जिसके चलते यह याचिका दायर की गई।
“रिमिशन का अधिकार केवल दोषसिद्ध होने और जेल में सजा काटने के बाद ही उत्पन्न होता है। इसलिए, दोषसिद्धि से पहले की हिरासत अवधि को रिमिशन में नहीं जोड़ा जा सकता।”
– न्यायमूर्ति डॉ. कौसर एडप्पगाथ
अदालत ने स्पष्ट किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 428 (अब BNSS की धारा 468) केवल सजा में कटौती (सेट-ऑफ) की अनुमति देती है। यह अवधि दोषसिद्धि के बाद की वास्तविक कैद के बराबर नहीं मानी जा सकती।
संबंधित कानूनी प्रावधान:
- धारा 428 CrPC (धारा 468 BNSS): दोषसिद्धि से पहले की हिरासत को सजा में समायोजित किया जा सकता है।
- केरल जेल अधिनियम की धारा 72: केवल दोषियों को सजा माफी का प्रावधान।
- केरल जेल नियम:
- नियम 376: अच्छे आचरण पर सामान्य रिमिशन।
- नियम 379(क): अच्छे व्यवहार और कार्य निष्पादन पर प्रति माह दो दिन की रिमिशन।
- नियम 381: जेल कार्य करने वाले कैदियों को अतिरिक्त रिमिशन।
- नियम 382: कोई जेल अपराध न करने पर 15 दिन की अतिरिक्त रिमिशन।
याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि जब सेट-ऑफ अवधि को सजा का हिस्सा माना गया है, तो इसे रिमिशन में भी गिना जाना चाहिए। उन्होंने पटना हाईकोर्ट के निर्णय (सतीश कुमार गुप्ता बनाम बिहार राज्य) का हवाला दिया, जिसमें इस मत का समर्थन किया गया था।
हालांकि, केरल हाईकोर्ट ने इससे असहमति जताई और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय (आंध्र प्रदेश सरकार बनाम अन्ने वेंकटेश्वर, 1977) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि दोषसिद्धि से पहले की हिरासत अवधि के लिए रिमिशन नहीं दी जा सकती।
“धारा केवल ‘सेट-ऑफ’ की अनुमति देती है; यह अंडरट्रायल हिरासत को दोषसिद्धि की सजा के बराबर नहीं ठहराती।”
इस आधार पर कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि रिमिशन की गणना मई 2024 से ही की जा सकती है, यानी दोषसिद्धि के बाद के अगले महीने से। जेल प्रशासन के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी गई और कोई हस्तक्षेप आवश्यक नहीं माना गया।
याचिकाकर्ता के वकील: एडवोकेट वी. टी. रघुनाथ
प्रतिवादियों के वकील: एडवोकेट पी. नारायणन (वरिष्ठ जी.पी.), सज्जू एस. (वरिष्ठ जी.पी.)
केस संख्या: डब्ल्यू.पी. (सीआरएल.) 82/2025
केस का शीर्षक: शायना पी. ए. बनाम केरल राज्य और अन्य