एक महत्वपूर्ण कानूनी घटनाक्रम में, केरल हाईकोर्ट ने यह सवाल फुल बेंच को भेजा है कि क्या हिंदू पत्नी अपने पति की अचल संपत्ति से भरण-पोषण की हकदार है, जब यह अधिकार हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 में स्पष्ट नहीं है? यह मुद्दा मैट. अपील संख्या 1093/2014 (सुलोचना बनाम अनिता एवं अन्य) में उठा, जहां न्यायमूर्ति सतीश निनन और न्यायमूर्ति पी. कृष्ण कुमार की पीठ ने पूर्व में विभिन्न निर्णयों में विरोधाभास पाया।
मामला एक बोना फाइड खरीदार द्वारा दायर अपील से शुरू हुआ, जिसने एक ऐसी संपत्ति खरीदी थी जो पहले पति (द्वितीय प्रतिवादी) की थी। यह बिक्री पत्नी (प्रथम प्रतिवादी) द्वारा भरण-पोषण के लिए दावा दर्ज करने से पहले हुई थी। हालांकि, जब पत्नी का दावा स्वीकार किया गया, तो पारिवारिक न्यायालय ने उस संपत्ति को कुर्क कर लिया। खरीदार ने अपील दायर की कि उसे इससे छूट दी जाए क्योंकि उसने बिक्री से पहले संपत्ति खरीदी थी।
पारिवारिक न्यायालय, तिरुवनंतपुरम ने खरीदार की याचिका खारिज कर दी और माना कि पत्नी को संपत्ति पर अपने भरण-पोषण के अधिकार को लागू करने का हक है। अदालत ने कहा कि पत्नी का उस संपत्ति पर चार्ज है और उसने रामनकुट्टी बनाम अम्मीनिकुट्टी (AIR 1997 Ker 306) के निर्णय का हवाला दिया।
अपीलकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है, जो पत्नी को इस तरह के अधिकार की अनुमति देता हो। उन्होंने विजयन बनाम शोभना (2007) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि धारा 28 केवल आश्रितों पर लागू होती है, जिसमें जीवित पति की पत्नी शामिल नहीं है।
खंडपीठ ने माना कि केरल हाईकोर्ट के पूर्व के कई निर्णयों में स्पष्ट विरोधाभास है। उदाहरणस्वरूप:
“विभिन्न खंडपीठों द्वारा इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी मत व्यक्त किए गए हैं, इसलिए हमारा मानना है कि इस विषय पर अंतिम निर्णय देने के लिए इसे फुल बेंच के पास भेजा जाना आवश्यक है।”
पीठ ने सथियम्मा बनाम गायत्री (2013), नैषा बनाम पी. सुरेश बाबू (2019) और हदिया बनाम शमीरा एम.एम. (2025) जैसे मामलों का भी उल्लेख किया, जिसमें यह कहा गया कि स्थानांतरण की जानकारी होने पर या जब ट्रांसफर मुफ्त होता है, तो धारा 39, ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट के तहत पत्नी संपत्ति से भरण-पोषण ले सकती है।
हिंदू विधि इतिहास और स्मृति ग्रंथों का संदर्भ
अदालत ने इस विषय पर गहराई से विचार करते हुए प्राचीन ग्रंथों और पूर्व निर्णयों का उल्लेख किया। उदाहरण के लिए:
“विवाह के माध्यम से एक हिंदू स्त्री को अपने पति की संपत्ति में कुछ हद तक रुचि प्राप्त होती है... जिससे वह अपने पति द्वारा विभाजन के समय पुत्रों के बराबर अधिकार की हकदार होती है।” (लक्ष्मण रामचंद्र बनाम सत्यभामा, 1877)
इसके अलावा अदालत ने निम्नलिखित निर्णयों पर भी चर्चा की:
- पवायम्माल बनाम सामियप्पा गौंडन (मद्रास हाईकोर्ट)
- बंडा मणिक्यम बनाम बंडा वेंकयम्मा (आंध्र हाईकोर्ट)
- सरवन सिंह बनाम जगीर कौर (पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट)
- बसुदेव डे सरकार बनाम छाया डे सरकार (कलकत्ता हाईकोर्ट)
निर्णय में स्पष्ट किया गया कि धारा 18 के अनुसार पति का व्यक्तिगत कर्तव्य होता है कि वह अपनी पत्नी का भरण-पोषण करे। लेकिन यह स्पष्ट रूप से यह नहीं कहता कि पत्नी को पति की अचल संपत्ति से भरण-पोषण का हक है।
“धारा 18 पति पर पत्नी का भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी डालती है... लेकिन इससे पत्नी को संपत्ति में कोई स्वामित्व अधिकार नहीं मिलता।”
धारा 27 और 28 बताती हैं कि भरण-पोषण का अधिकार कब संपत्ति पर चार्ज बनता है और संपत्ति के हस्तांतरण का उस अधिकार पर क्या प्रभाव पड़ता है। विशेष रूप से धारा 21 के अनुसार “आश्रित” में जीवित पति की पत्नी शामिल नहीं है, जिससे उसका अधिकार स्पष्ट नहीं हो पाता।
धारा 39, ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट पर भी अदालत ने जोर दिया:
“यह स्वयं में कोई अधिकार नहीं बनाती, बल्कि किसी मौजूदा अधिकार को संरक्षित करती है यदि वह पहले से विधि के अनुसार स्थापित हो।”
अदालत ने कहा कि कई पुराने निर्णय ऐसे प्राचीन हिंदू नियमों और स्मृति ग्रंथों पर आधारित थे, जो 1956 अधिनियम के पूर्व के थे। चूंकि हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 प्राचीन हिंदू कानूनों को निष्प्रभावी करता है (धारा 4 के तहत), इसलिए यह आवश्यक है कि यह निर्धारित किया जाए:
- क्या ये पुराने सिद्धांत आज भी लागू होते हैं?
- क्या भरण-पोषण का अधिकार अधिनियम के बाहर भी मान्य है, विशेषकर जब पति अपनी संपत्ति बेचकर दायित्व से बचना चाहता हो?
अदालत ने निम्न दो प्रश्न फुल बेंच के समक्ष रखे:
(a) क्या हिंदू पत्नी हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के प्रावधानों से अलग अपने पति की अचल संपत्ति से भरण-पोषण की हकदार है?
(b) क्या विजयन बनाम शोभना, सथियम्मा बनाम गायत्री, नैषा बनाम सुरेश बाबू, और हदिया बनाम शमीरा जैसे मामलों में व्यक्त किए गए विचारों में स्पष्ट विरोधाभास नहीं है? और सही कानून क्या है?
केस नंबर: 2014 की मैट अपील नंबर 1093
केस का शीर्षक: सुलोचना बनाम अनिता और अन्य।
अपीलकर्ता के वकील: एस.बालाचंद्रन (कुलशेखरम), वी.आर. गोपू
प्रतिवादियों के वकील: के.सतीश कुमार, टी.ए. R1 के लिए उन्नीकृष्णन; आर2 के लिए जी. कृष्णाकुमारी
न्याय मित्र: टी. कृष्णनुन्नी (वरिष्ठ वकील)