पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने एक वकील द्वारा न्यायिक अधिकारियों और वकीलों पर लगाए गए गंभीर आरोपों को पूरी तरह से खारिज कर दिया। कोर्ट ने इस याचिका को अवमाननापूर्ण और न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुँचाने वाला करार देते हुए याचिकाकर्ता पर ₹25,000 का जुर्माना लगाया। याचिकाकर्ता ने न्यायिक अधिकारियों और कुछ वकीलों पर सार्वजनिक संपत्ति हड़पने का आरोप लगाया था और इसके लिए एफआईआर दर्ज करने की मांग की थी।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार की निराधार याचिकाएं न्यायपालिका को प्रभावित करने और उसकी छवि धूमिल करने की कोशिश होती हैं। न्यायमूर्ति एन.एस. शेखावत ने टिप्पणी करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ने अहंकारी और अवमाननापूर्ण रवैया अपनाया है, लेकिन न्यायालय की गरिमा इतनी नाजुक नहीं कि इसे एक पागल व्यक्ति द्वारा फेंका गया पत्थर हिला सके।
कोर्ट ने आगे कहा कि यह याचिका केवल न्यायालय की प्रक्रिया को बाधित करने और अनावश्यक विवाद उत्पन्न करने के उद्देश्य से दायर की गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता सुरेश कुमार, जो खुद को एक वकील बताते हैं, ने धारा 482 सीआरपीसी के तहत यह याचिका दायर की थी। उन्होंने चार न्यायिक अधिकारियों और दो वकीलों पर सार्वजनिक संपत्ति हड़पने का आरोप लगाया था। इसके अलावा, उन्होंने दावा किया कि न्यायिक अधिकारियों ने अपने पद का दुरुपयोग किया और कुछ मामलों को अनुचित रूप से जल्दी निपटाया, जबकि अन्य मामलों को लंबे समय तक लंबित रखा। याचिकाकर्ता ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपने की भी मांग की थी।
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कोर्ट ने कहा कि एफआईआर दर्ज करने की मांग करने वाली याचिकाएं धारा 482 सीआरपीसी के तहत स्वीकार्य नहीं होतीं क्योंकि इसके लिए अन्य कानूनी उपाय पहले से उपलब्ध हैं। यदि किसी व्यक्ति की शिकायत है कि उसकी एफआईआर दर्ज नहीं हो रही है, तो उसे पहले पुलिस अधीक्षक के पास जाना चाहिए। यदि वहां भी समाधान न मिले, तो मजिस्ट्रेट से संपर्क किया जा सकता है। सीधे हाई कोर्ट में याचिका दायर करना सही तरीका नहीं है।
कोर्ट ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ता ने बिना किसी ठोस प्रमाण के न्यायिक अधिकारियों और वकीलों पर गंभीर आरोप लगाए थे। पूरी याचिका में किसी संपत्ति का स्पष्ट विवरण नहीं दिया गया था, जिसे कथित रूप से हड़पा गया हो। आरोप केवल अटकलों पर आधारित थे और उनका कोई कानूनी आधार नहीं था।
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि कुछ लोग अपनी असफलताओं को छिपाने के लिए न्यायपालिका को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति अपनाते हैं। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है जो न्यायिक प्रक्रिया को बाधित कर सकती है। अदालत ने स्पष्ट किया कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह खुद को वकील कहे या नहीं, न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुँचाने का अधिकार नहीं रखता।
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कोर्ट ने याचिका को पूरी तरह से खारिज कर दिया और याचिकाकर्ता पर ₹25,000 का जुर्माना लगाया। यह राशि पीजीआई पूअर पेशेंट वेलफेयर फंड, चंडीगढ़ में जमा कराई जाएगी। यदि दो महीने के भीतर जुर्माना नहीं भरा जाता है, तो इसे भूमि राजस्व के बकाया के रूप में वसूला जाएगा।
कोर्ट ने याचिकाकर्ता को चेतावनी दी कि यदि भविष्य में ऐसी निराधार और अपमानजनक याचिकाएं दायर की जाती हैं, तो उसके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की जाएगी।