सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में सार्वजनिक संस्थानों द्वारा श्रमिकों को अस्थायी रूप से नियुक्त करने और उन्हें स्थायी लाभ से वंचित रखने की प्रथा की कड़ी आलोचना की। कोर्ट ने दोहराया कि यदि कोई कर्मचारी स्वीकृत पदों पर लंबे समय से कार्यरत है, तो केवल इस आधार पर कि उनकी प्रारंभिक नियुक्ति अस्थायी थी, उन्हें नियमितीकरण से वंचित नहीं किया जा सकता।
"उमा देवी का फैसला (2006) किसी नियोक्ता को वर्षों तक श्रमिकों का शोषण करने का औचित्य नहीं दे सकता।" – सुप्रीम कोर्ट
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला गाजियाबाद नगर निगम के उद्यान विभाग में माली (बागवानी कर्मचारी) के रूप में कार्यरत श्रमिकों से जुड़ा है, जिन्होंने 1998-1999 से बिना आधिकारिक नियुक्ति पत्र, न्यूनतम वेतन और सामाजिक सुरक्षा के कार्य किया। 2004 में उन्होंने अपने नियमितीकरण की मांग को लेकर औद्योगिक विवाद दायर किया, लेकिन 2005 में बिना कोई लिखित आदेश दिए उनकी सेवाएं समाप्त कर दी गईं।
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लेबर कोर्ट द्वारा इस मामले में परस्पर विरोधी निर्णय दिए गए—कुछ कर्मचारियों के पक्ष में, तो कुछ के खिलाफ। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कर्मचारियों की पुनःनियुक्ति को स्वीकार किया, लेकिन नियमितीकरण से इनकार कर दिया। इससे असंतुष्ट होकर श्रमिकों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले शामिल थे, ने हाई कोर्ट के निर्णय को निरस्त करते हुए श्रमिकों के हक में फैसला दिया। कोर्ट ने कहा:
"यह स्पष्ट है कि श्रमिक वर्षों तक लगातार सेवाएं दे रहे थे। यहां तक कि यदि कुछ दस्तावेज नियोक्ता द्वारा पेश नहीं किए गए, तो भी श्रम कानूनों के तहत प्रतिकूल अनुमान लगाया जा सकता है।" – सुप्रीम कोर्ट
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उमा देवी का फैसला नियमितीकरण से रोकने के लिए लागू नहीं किया जा सकता – सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह फैसला उन मामलों पर लागू नहीं होता जहां कर्मचारी स्वीकृत पदों पर लगातार काम कर रहे हैं।
नवीन भर्ती पर प्रतिबंध का बहाना नहीं चलेगा – कोर्ट ने माना कि नगर निगम में माली पदों की आवश्यकता स्थायी है, और केवल "भर्ती पर प्रतिबंध" का हवाला देकर नियमितीकरण से इनकार करना अनुचित है।
न्यायालय ने श्रमिकों की सेवाओं को निरंतर माना – कोर्ट ने उनके समर्पण को मान्यता देते हुए आदेश दिया कि:
- उनकी सेवाओं को समाप्त करना गैरकानूनी था।
- उन्हें फिर से बहाल किया जाए।
- उन्हें 50% बकाया वेतन दिया जाए।
- छह महीनों के भीतर उनके नियमितीकरण की प्रक्रिया शुरू की जाए।
इस फैसले ने दैनिक वेतनभोगी श्रमिकों के अधिकारों को मजबूत किया है और यह सुनिश्चित किया है कि कोई भी नियोक्ता, सरकारी या निजी, श्रमिकों को अस्थायी रखकर उनके अधिकारों का हनन नहीं कर सकता।