सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि अगर कोई व्यक्ति सही समय पर अपने इम्पलीडमेंट पर आपत्ति नहीं उठाता है, तो वह बाद में खुद को मामले से हटाने की अर्जी दाखिल नहीं कर सकता। ऐसा रेस ज्यूडिकेटा (पूर्व निर्णय बाध्यता) के सिद्धांत के कारण होता है, जो एक ही मामले में एक ही मुद्दे को बार-बार उठाने से रोकता है।
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यह मामला एक व्यक्ति से जुड़ा था जिसे अपने मृत पिता के कानूनी वारिस के रूप में एक मामले में जोड़ा गया था। बाद में उसने अपना नाम हटवाने की कोशिश की, यह तर्क देते हुए कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार, चूंकि उसके पिता अपनी दादी से पहले ही गुजर गए थे, इसलिए वह कानूनी वारिस नहीं हो सकते। ट्रायल कोर्ट ने पहले ही सीपीसी के आदेश XXII के तहत जांच करके उसे शामिल करने का निर्णय ले लिया था। उस समय इस आदेश के खिलाफ कोई चुनौती नहीं दी गई, जिससे यह निर्णय अंतिम हो गया।
बाद में, व्यक्ति ने सीपीसी के आदेश I नियम 10 के तहत अपना नाम हटाने के लिए अर्जी दाखिल की। ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट दोनों ने इस नई अर्जी को खारिज कर दिया। इसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने पहले के फैसलों को बरकरार रखा और कहा:
“वर्तमान मामले में, अपीलकर्ता को कानूनी वारिस के रूप में इम्पलीड करने का आदेश ट्रायल कोर्ट ने आदेश XXII के तहत उचित जांच के बाद पारित किया था, जैसा कि आदेश I नियम 10 के तहत अर्जी को खारिज करते समय ट्रायल कोर्ट ने अपने आदेश में भी कहा। स्पष्ट रूप से, अपीलकर्ता ने ट्रायल कोर्ट के समक्ष न तो कोई आपत्ति उठाई और न ही बाद में इस आदेश के खिलाफ कोई पुनरीक्षण दायर किया।”
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अदालत ने आगे कहा:
“इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि अपीलकर्ता को मूल प्रतिवादी का कानूनी वारिस मानकर इम्पलीडमेंट का मुद्दा पक्षकारों के बीच अंतिम रूप से तय हो चुका था और इस प्रकार आदेश I नियम 10 के तहत बाद में दायर की गई अर्जी रेस ज्यूडिकेटा से बाधित थी।”
अदालत ने समझाया कि हालांकि आदेश I नियम 10 सीपीसी किसी भी स्तर पर नाम हटाने की अर्जी देने की अनुमति देता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई व्यक्ति एक ही आपत्ति बार-बार उठा सकता है। ऐसा करने से न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन होगा और मामले का निपटारा लटकता रहेगा।
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फैसले में यह भी कहा गया:
“अगर अपीलकर्ता ने कार्यवाही के सही चरण पर आपत्ति उठाई होती, तो अदालत आदेश XXII नियम 5 के तहत उस आपत्ति पर विचार करके उसे मूल प्रतिवादी का कानूनी वारिस मानने से इनकार कर सकती थी। हालांकि, सही समय पर कार्रवाई करने में विफल रहने के कारण, अपीलकर्ता को बाद में आदेश I नियम 10 के तहत अर्जी दाखिल करने की अनुमति नहीं थी।”
केस का शीर्षक: सुल्तान सईद इब्राहिम बनाम प्रकाशन एवं अन्य।
उपस्थिति:
याचिकाकर्ता(ओं) के लिए: श्री वी. चिताम्बरेश, वरिष्ठ अधिवक्ता श्री हर्षद वी. हमीद, एओआर श्री दिलीप पूलकोट, अधिवक्ता श्री सी. गोविंद वेणुगोपाल, अधिवक्ता श्रीमती एशली हर्षद, अधिवक्ता
प्रतिवादी(ओं) के लिए: श्री मुकुंद पी. उन्नी, एओआर