23 जुलाई 2024 को दिए गए एक महत्वपूर्ण फैसले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि हाईकोर्ट का आदेश धोखाधड़ी से प्राप्त किया गया हो, तो उस पर डॉक्ट्रिन ऑफ मर्जर (विलय सिद्धांत) लागू नहीं होगा, भले ही उस आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने बाद में मंजूरी दी हो।
यह मामला न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और उज्जल भुइयां की तीन-न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष आया था, जिसमें यह आरोप था कि एक पक्षकार (रेड्डी) ने 2021 में हाईकोर्ट का पक्ष में आदेश पाने के लिए महत्वपूर्ण तथ्यों को छुपाया। इस हाईकोर्ट के निर्णय को बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में मंजूरी दी थी।
अपीलकर्ता विष्णु, जो पहले की कार्यवाही में पक्षकार नहीं थे, ने 2022 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को चुनौती दी, यह दलील देते हुए कि हाईकोर्ट का मूल आदेश धोखाधड़ी से प्राप्त किया गया था और इसलिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश दोषपूर्ण (vitiated) है और उसे अंतिम नहीं माना जा सकता।
मुख्य कानूनी प्रश्न यह था:
क्या धोखाधड़ी से प्राप्त हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने मंजूरी दी हो, सुप्रीम कोर्ट में नियमित अपील की जा सकती है? या उस आदेश के विरुद्ध पुनरावलोकन याचिका ही दायर करनी होगी?
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रेड्डी की ओर से यह तर्क दिया गया कि ऐसी सिविल अपील स्वीकार्य नहीं है क्योंकि एक बार सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को मंजूरी दे दी, तो डॉक्ट्रिन ऑफ मर्जर लागू हो जाता है, जिससे सुप्रीम कोर्ट का आदेश अंतिम बन जाता है और उसके खिलाफ अपील संभव नहीं होती।
इस दलील को खारिज करते हुए, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता द्वारा लिखे गए निर्णय में कहा गया:
"चूंकि हाईकोर्ट का निर्णय धोखाधड़ी से प्रभावित था और गुण-दोष के आधार पर नहीं दिया गया था, इसलिए 2022 में सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी एक वास्तविक मर्जर नहीं मानी जा सकती।”
अदालत ने माना कि जब आदेश धोखाधड़ी पर आधारित हो, तो वह वैधानिक वैधता (legal sanctity) प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसे मामलों में, हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ नियमित सिविल अपील दायर करना संपूर्ण रूप से वैध है।
अदालत ने पांच परिस्थितियाँ भी स्पष्ट कीं, जब डॉक्ट्रिन ऑफ मर्जर लागू नहीं होता:
(i) जब अपीलकर्ता के पास अत्यंत दुर्लभ या विशेष परिस्थिति हो, जिससे उसका अपील का अधिकार समाप्त न किया जाए।
(ii) जब अपील में जनहित का गंभीर मुद्दा उठता हो, जो पहले नहीं उठाया जा सका और जिसका निपटारा आवश्यक हो।
(iii) जब अदालत का हस्तक्षेप न करना, उस सिद्धांत का उल्लंघन करेगा कि "actus curiae neminem gravabit" (कोर्ट की गलती से कोई पक्ष पीड़ित न हो)।
(iv) जब पूर्व निर्णय धोखाधड़ी से प्रभावित हो, जैसा कि इस मामले में हुआ।
(v) जब जनहित को अत्यधिक हानि पहुँचने की संभावना हो यदि केवल डॉक्ट्रिन ऑफ मर्जर के आधार पर न्यायिक हस्तक्षेप को रोका जाए।
इन आधारों पर, सुप्रीम कोर्ट ने 2021 का हाईकोर्ट आदेश और उसका अपना 2022 का निर्णय (Reddy Veerana केस) रद्द कर दिया। मामले को पुनः हाईकोर्ट में सुनवाई के लिए बहाल किया गया, जिसमें सभी प्रभावित पक्षों जैसे विष्णु और सुधाकर को पक्षकार बनाया जाएगा।
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“धोखाधड़ी अदालत की सबसे गंभीर कार्यवाही को भी निष्प्रभावी कर सकती है। इसे न्याय के ऊपर नहीं होने दिया जा सकता।” — सुप्रीम कोर्ट
मामले का शीर्षक: विष्णु वर्धन @ विष्णु प्रधान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (एवं संबंधित मामले)