22 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों को लेकर किए गए संवैधानिक संदर्भ पर केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया। यह संदर्भ राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर सहमति देने की संवैधानिक शक्तियों को स्पष्ट करने के उद्देश्य से किया गया है।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिंहा और न्यायमूर्ति एएस चंदूरकर शामिल हैं, ने इस मामले को लिया। यह मामला IN RE : Assent, Withholding or Reservation of Bills by the Governor and the President of India | SPL. REF. No. 1/2025 शीर्षक से दर्ज किया गया है। अगली सुनवाई अगले मंगलवार को निर्धारित की गई है और अदालत अगस्त में इस पर व्यापक सुनवाई करेगी।
“हम इस मामले की सुनवाई अगस्त में करने का प्रस्ताव रखते हैं,” — मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने कहा।
सुप्रीम कोर्ट ने भारत के अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि से इस मामले में सहायता देने का अनुरोध किया है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भारत सरकार की ओर से नोटिस को माफ कर दिया।
सीनियर एडवोकेट केके वेणुगोपाल, जो केरल राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, ने कहा कि केरल इस संदर्भ की स्वीकार्यता पर सवाल उठाएगा। तमिलनाडु की ओर से पेश हुए सीनियर एडवोकेट पी. विल्सन ने कहा कि तमिलनाडु राज्यपाल मामले में दिए गए फैसले में पहले से ही ये मुद्दे कवर हैं और तमिलनाडु भी इस संदर्भ की स्वीकार्यता पर सवाल उठाएगा।
पृष्ठभूमि:
यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट के उस ऐतिहासिक फैसले के बाद आया है जिसमें तमिलनाडु राज्यपाल द्वारा विधेयकों को लंबित रखने पर समयसीमा तय की गई थी। अदालत ने कहा:
“राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। उन्हें तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।”
इस फैसले में यह भी कहा गया कि यदि राज्यपाल कोई विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो राष्ट्रपति को भी तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि यदि तय समयसीमा का उल्लंघन होता है, तो राज्य सरकार मैंडमस रिट की मांग कर सकती है। कोर्ट ने यह भी घोषित किया कि जिन 10 विधेयकों को राज्यपाल ने एक साल से अधिक समय तक लंबित रखा था, वे परिकल्पित सहमति प्राप्त कर चुके हैं।
इस फैसले की आलोचना तत्कालीन उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने की थी। उन्होंने सवाल उठाया था कि क्या न्यायपालिका राष्ट्रपति को निर्देश दे सकती है। उन्होंने अनुच्छेद 142 की शक्ति को “न्यायपालिका के पास परमाणु मिसाइल” कहा था।
राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत भेजे गए इस संवैधानिक संदर्भ में 14 महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए हैं, जिनमें शामिल हैं:
- अनुच्छेद 200 के तहत विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर राज्यपाल के पास कौन-कौन से संवैधानिक विकल्प उपलब्ध हैं?
- क्या राज्यपाल मंत्रीपरिषद की सलाह से बंधे हैं?
- क्या अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति का विवेकाधिकार न्यायिक समीक्षा के अधीन है?
- जब संविधान में समयसीमा नहीं दी गई है, तो क्या न्यायपालिका समयसीमा तय कर सकती है?
- क्या अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट संवैधानिक प्रक्रियाओं को बदल सकता है?
- क्या विधेयक के कानून बनने से पहले ही अदालत उसमें हस्तक्षेप कर सकती है?
- क्या राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक बिना राज्यपाल की सहमति के लागू कानून बन सकता है?
- क्या अनुच्छेद 145(3) के तहत किसी संविधान पीठ को पहले यह तय करना आवश्यक है कि क्या इसमें संविधान की व्याख्या से जुड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न है?
- क्या अनुच्छेद 131 को छोड़कर किसी अन्य मार्ग से सुप्रीम कोर्ट संघ और राज्यों के बीच विवाद सुलझा सकती है?
उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति नरसिंहा और न्यायमूर्ति चंदूरकर केरल राज्यपाल से जुड़े एक अन्य मामले की भी सुनवाई कर रहे हैं, जिसमें केरल सरकार का कहना है कि यह तमिलनाडु फैसले से नियंत्रित है। लेकिन केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया और कहा कि पहले राष्ट्रपति द्वारा किया गया यह संदर्भ निपटाया जाए।
मामले का विवरण: भारत के राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर स्वीकृति, रोक या आरक्षण के संबंध में | REF. No. 1/2025