मद्रास हाई कोर्ट ने रखरखाव विवाद में डीएनए जांच की याचिका खारिज की, कहा - "विश्वासघात साबित करने के लिए बच्चे की पहचान की बलि नहीं दी जा सकती"

By Shivam Y. • October 8, 2025

मद्रास उच्च न्यायालय ने भरण-पोषण मामले में पति की डीएनए परीक्षण याचिका को निजता, बच्चे के अधिकार और 12 साल की देरी का हवाला देते हुए खारिज कर दिया; वैधता की धारणा को बरकरार रखा। - के बनाम एम

मदुरै खंडपीठ में 25 सितम्बर 2025 को न्यायमूर्ति शमीम अहमद ने एक महत्वपूर्ण आदेश में एक पति की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने अपनी नाबालिग बेटी की पितृत्व जांच (डीएनए टेस्ट) की मांग की थी। अदालत ने साफ कहा कि किसी बच्चे के सम्मान और पहचान के अधिकार को माता-पिता के आरोपों के लिए कुर्बान नहीं किया जा सकता।

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पृष्ठभूमि

यह दंपति मार्च 2007 में विवाह बंधन में बंधा था और 2012 में आपसी सहमति से तलाक ले लिया। करीब नौ साल बाद, 2021 में पत्नी ने अपने और बेटी के लिए पालन-पोषण (मेंटेनेंस) की याचिका पालानी के न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर की। इसके जवाब में पति ने 2025 में - तलाक के लगभग 12 साल बाद - यह कहते हुए डीएनए जांच की मांग की कि बच्ची उसकी संतान नहीं है।

ट्रायल कोर्ट ने जून 2025 में यह कहते हुए उसकी याचिका खारिज कर दी कि ऐसी जांच न तो आवश्यक है और न ही उचित। पति ने उस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी, यह दलील देते हुए कि बिना डीएनए परीक्षण के उसे "अपूरणीय क्षति" होगी।

अदालत की टिप्पणियां

न्यायमूर्ति अहमद ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 116 का उल्लेख करते हुए कहा कि यदि विवाह वैध रूप से कायम है तो उस अवधि में जन्मा बच्चा पति का वैध संतान माना जाता है, जब तक कि पति यह साबित न कर दे कि उसे उस अवधि में पत्नी तक कोई पहुँच नहीं थी।

न्यायमूर्ति ने कहा,

"कानून यह मजबूत अनुमान लगाता है कि विवाह के दौरान जन्मा बच्चा पति की ही संतान है। इस सिद्धांत का उद्देश्य बच्चे की पितृत्व पर अनावश्यक जांच को रोकना है।"

अदालत ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ता कोई सबूत नहीं दे सका जिससे यह साबित हो सके कि उसे पत्नी तक पहुँच नहीं थी। साथ ही, 12 वर्षों की चुप्पी के लिए भी कोई ठोस कारण प्रस्तुत नहीं किया गया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसलों इवान रथिनम बनाम मिलन जोसेफ (2025 INSC 115) और अपर्णा अजिंक्य फिरोदिया बनाम अजिंक्य अरुण फिरोदिया (2023) का हवाला देते हुए न्यायमूर्ति अहमद ने कहा कि "डीएनए टेस्ट को सामान्य प्रक्रिया के रूप में आदेशित नहीं किया जा सकता।" उन्होंने जोर दिया कि ऐसी जांच के आदेश देते समय अदालतों को अत्यंत सतर्क रहना चाहिए क्योंकि यह मां और बच्चे दोनों की गरिमा और निजता को प्रभावित करता है।

न्यायमूर्ति अहमद ने टिप्पणी की,

"डीएनए टेस्ट की अनुमति देने का प्रश्न माता-पिता के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि बच्चे के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। बच्चे को यह दिखाने के लिए मोहरे के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता कि उसकी मां व्यभिचार में लिप्त थी।"

उन्होंने आगे कहा कि पति की याचिका का उद्देश्य अपनी पूर्व पत्नी को "अपमानित और बदनाम" करना और पालन-पोषण के मामले को खींचना प्रतीत होता है।

निर्णय

अदालत ने पुनरीक्षण याचिका को निराधार पाते हुए खारिज कर दिया और निचली अदालत के आदेश को बरकरार रखा।

अपने निर्णायक निष्कर्ष में न्यायमूर्ति अहमद ने कहा -

"लगभग बारह वर्षों की बिना कारण देरी, किसी भी दस्तावेजी साक्ष्य का अभाव, वैधता का कानूनी अनुमान और निजता से जुड़ी चिंताएँ - ये सभी बातें याचिकाकर्ता के दावे के विरुद्ध जाती हैं।"

इस प्रकार, मद्रास हाई कोर्ट ने Crl.R.C.(MD) No.842 of 2025 को खारिज कर दिया और संबंधित आपराधिक याचिका को बंद कर दिया, बिना किसी लागत आदेश के।

Case Title: K vs. M

Petitioner's Counsel: Mr. A.K. Manikkam

Respondents’ Counsel: Ms. Kayal Vizhi for Mr. T. Thirumurugan

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