जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने एक सख्त आदेश में केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन को लगभग 98 लाख रुपये ठेकेदार को तुरंत जारी करने का निर्देश दिया है, साथ ही देरी से भुगतान पर ब्याज भी देने को कहा है। जस्टिस वसीम सादिक नारगल ने 26 सितंबर 2025 को जम्मू में यह आदेश पारित किया और सरकारी विभागों द्वारा स्वीकृत बकाया रोके जाने की प्रवृत्ति को "व्यवस्थित रोग" करार दिया।
पृष्ठभूमि
यह मामला एम/एस सेंट सोल्जर इंजीनियर एंड कॉन्ट्रैक्टर प्राइवेट लिमिटेड द्वारा दायर किया गया था। इसके निदेशक 66 वर्षीय श्याम सिंह जम्वाल जम्मू के पंजीकृत सरकारी ठेकेदार हैं। वर्ष 2015 में जम्वाल की फर्म को डेरा कैंप–निकवाल साईं सड़क परियोजना का ठेका मिला था। शुरुआत में इस परियोजना की लागत 50 लाख रुपये से अधिक थी, लेकिन स्थानीय आपत्तियों के कारण काम का दायरा बढ़ा और इसमें बिटुमेन मैकाडम तथा अतिरिक्त कारपेट परत शामिल की गई। इससे लागत बढ़कर 2.37 करोड़ रुपये से अधिक हो गई।
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कार्य वर्ष 2017 में पूरा हुआ और अधिकारियों, जिनमें कार्यकारी अभियंता भी शामिल थे, ने भुगतान को मान्यता दी। लेकिन 97,87,012 रुपये की शेष राशि कभी जारी नहीं हुई। ठेकेदार ने बार-बार अनुरोध भेजे, मगर विभाग ने "धन की अनुपलब्धता" का हवाला दिया। अंततः जम्वाल को हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
बेंच प्रशासन की आलोचना करने में पीछे नहीं रही। जस्टिस नारगल ने कहा,
"एक बार जब देयता स्वीकार कर ली जाती है और राज्य ठेकेदार द्वारा किए गए कार्य का लाभ उठाता है, तब यह भुगतान से मुकर नहीं सकता और सीमाबंदी का बहाना नहीं बना सकता।"
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अदालत ने पाया कि सरकार का बचाव कि यह दावा समय-सीमा से बाहर है कानूनी रूप से अस्वीकार्य है। क्योंकि देयता कई बार, खासकर 2018 और 2020 में, स्वीकार की गई थी। न्यायाधीश ने कहा कि भुगतान न करना हर दिन एक नया उल्लंघन है।
उन्होंने आगे कहा कि ऐसी प्रवृत्ति से जनता का विश्वास कम होता है:
"यदि ठेकेदारों को बार-बार अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़े, तो गलती ठेकेदार की नहीं बल्कि जवाबदेह अधिकारियों की है।"
निर्णय में यह भी स्पष्ट किया गया कि राज्य, निजी पक्ष की तरह नहीं बल्कि संवैधानिक दायित्वों से बंधा है। अनुच्छेद 14 का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि स्वीकृत भुगतान रोकना मनमानी है और समानता के अधिकार का उल्लंघन है।
निर्णय
अपने अंतिम आदेश में जस्टिस नारगल ने लोक निर्माण विभाग को चार सप्ताह के भीतर 97,87,012 रुपये जारी करने और वर्ष 2017 से 6% ब्याज सहित भुगतान करने का निर्देश दिया। उन्होंने यह भी कहा कि यदि देरी अधिकारियों की लापरवाही से हुई है तो ब्याज का बोझ सार्वजनिक खजाने पर नहीं बल्कि जिम्मेदार अधिकारियों के वेतन से वसूला जाए।
न्यायाधीश ने एक कदम आगे बढ़ते हुए केंद्र शासित प्रदेश के मुख्य सचिव को यह सुनिश्चित करने के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) बनाने का निर्देश दिया कि अंतिम बिल जमा होने के बाद 60 दिनों से अधिक समय तक किसी भी ठेकेदार का स्वीकृत बकाया लंबित न रहे।
इस आदेश के साथ अदालत ने साफ कर दिया कि "धन की कमी" जैसे प्रशासनिक बहाने अब सरकार को उसके वित्तीय दायित्वों से नहीं बचा सकते।
Case Title: M/s Saint Soldier Engineer and Contractor Pvt. Ltd. v. Union Territory of Jammu & Kashmir & Ors.
Case Number: WP(C) No. 2472/2022