लोकतांत्रिक चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता को रेखांकित करते हुए पटना हाईकोर्ट ने 3 नवंबर 2025 को एक अहम फैसला सुनाया। अदालत ने बिहार विधानसभा चुनाव के लिए नामांकन रद्द किए जाने को चुनौती देने वाली दो रिट याचिकाएं खारिज कर दीं। न्यायमूर्ति ए. अभिषेक रेड्डी ने कहा कि चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद अदालतों को हस्तक्षेप से बचना चाहिए और किसी भी विवाद को केवल विधिक चुनाव याचिका के माध्यम से ही उठाया जा सकता है।
दोनों याचिकाएं एक स्वेता सुमन की (मोहनियां आरक्षित सीट) और दूसरी राकेश कुमार सिंह की (घोसी सीट) को एक साथ सुना गया क्योंकि दोनों में समान कानूनी प्रश्न उठे थे।
पृष्ठभूमि
स्वेता सुमन ने अनुसूचित जाति आरक्षित मोहनियां विधानसभा सीट से नामांकन दाखिल किया था और अपने जाति प्रमाणपत्र की प्रति संलग्न की थी। लेकिन निर्वाचन अधिकारी ने उस प्रमाणपत्र की सत्यता पर सवाल उठाते हुए उनका नामांकन रद्द कर दिया। याचिका में कहा गया कि उन्हें न तो आपत्ति की प्रति दी गई और न ही जवाब देने का मौका मिला।
इसी तरह राकेश कुमार सिंह का नामांकन “मनमाने और गैरकानूनी कारणों” से अस्वीकृत कर दिया गया, और उन्हें अस्वीकृति आदेश की प्रति तक नहीं दी गई। दोनों का कहना था कि यह कार्रवाई जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।
दोनों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एस.बी.के. मंगालम ने दलील दी कि यह फैसला राजनीतिक रूप से प्रेरित है। उन्होंने कहा, “निर्वाचन अधिकारी ने पक्षपातपूर्ण और मनमाने तरीके से निर्णय लिया, जो निष्पक्ष जांच की भावना के विपरीत है।”
प्रतिवादियों की दलीलें
निर्वाचन आयोग की ओर से अधिवक्ता सिद्धार्थ प्रसाद ने याचिकाओं की ग्राह्यता पर कड़ा विरोध जताया। उनका कहना था कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अदालत चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, खासकर जब चुनाव अधिसूचना जारी हो चुकी हो।
उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 329(बी) का हवाला दिया, जो चुनाव प्रक्रिया में न्यायिक दखल को प्रतिबंधित करता है, और कहा कि किसी भी प्रत्याशी के लिए एकमात्र उपाय चुनाव याचिका दायर करना है। “चुनाव 11 नवंबर को है। ईवीएम पहले ही भेजी जा चुकी हैं। अब कोई भी आदेश पूरे चुनाव कार्यक्रम को बाधित कर देगा,” उन्होंने कहा।
राज्य की ओर से महाधिवक्ता पी.के. शाही ने भी यही रुख अपनाया और कहा कि “जब चुनाव कार्यक्रम अधिसूचित हो जाता है, तब न्यायिक संयम न केवल अपेक्षित बल्कि संवैधानिक रूप से अनिवार्य हो जाता है।”
अदालत की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति रेड्डी ने कहा कि दोनों मामलों में मुख्य प्रश्न यही है क्या हाईकोर्ट अनुच्छेद 226 के तहत नामांकन अस्वीकृति से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है जब चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी हो। अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसा नहीं हो सकता।
अदालत ने अनुच्छेद 329(बी) और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 80 और 100(सी) का हवाला देते हुए कहा कि नामांकन अस्वीकृति सहित किसी भी चुनावी विवाद को केवल चुनाव याचिका के माध्यम से ही चुनौती दी जा सकती है।
अदालत ने कहा, “संविधान और चुनाव कानून स्पष्ट रूप से बताते हैं कि चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद किसी उम्मीदवार के लिए एकमात्र उपाय चुनाव याचिका दाखिल करना है।”
न्यायालय ने एन.पी. पोनुस्वामी बनाम रिटर्निंग ऑफिसर (1952) और मोहनिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य निर्वाचन आयुक्त (1978) जैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि चुनावी प्रक्रिया में न्यायिक हस्तक्षेप “लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विलंब और बाधा” उत्पन्न करेगा।
न्यायमूर्ति रेड्डी ने कहा, “यदि अदालतें ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने लगें तो इससे चुनाव पूर्व और चुनावोत्तर चरणों में विरोधाभासी स्थिति पैदा होगी, जिसे संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट रूप से टालना चाहा था।”
निर्णय
अंत में अदालत ने कहा कि दोनों याचिकाएं ग्राह्य नहीं हैं और इनमें हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं बनता। न्यायमूर्ति रेड्डी ने कहा, “यदि इस स्तर पर कोई निर्देश दिया जाता है तो यह पूरे चुनावी कार्यक्रम को प्रभावित करेगा और उसकी समयसीमा को बिगाड़ देगा।”
अदालत ने दोनों याचिकाएं खारिज करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता चुनाव परिणाम आने के बाद उचित मंच पर चुनाव याचिका दायर कर सकते हैं। “इस अदालत ने मामले के गुण-दोष पर कोई राय नहीं दी है और सभी मुद्दे संबंधित न्यायाधिकरण के लिए खुले रखे जाते हैं,” आदेश में कहा गया।
Case Title: Sweta Suman v/s ECI and Others AND Rakesh Kumar Singh v/s ECI & Others