सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को पुणे जिले के तीन आरोपियों - हरिभाऊ @ भाऊसाहेब दिनकर खारुसे, राजेंद्र भिवराव शिरवाले और सुभाष रघुनाथ पवार - की सजा को बरकरार रखते हुए उनकी अपीलें खारिज कर दीं। यह मामला 1999 में हुई एक शादी के दौरान हिंसक झगड़े से उपजे हत्या प्रकरण से जुड़ा है। अदालत ने माना कि तीनों आरोपी एक अवैध भीड़ (unlawful assembly) का हिस्सा थे, जिसने मिलकर योजनाबद्ध तरीके से हमला किया, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हुई और दो अन्य गंभीर रूप से घायल हुए।
पीठ ने कहा, “रिकॉर्ड पर मौजूद सबूत यह दिखाते हैं कि अभियुक्तों ने पूर्वनियोजित हमले में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया।” यह फैसला न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने सुनाया।
पृष्ठभूमि
यह मामला अप्रैल 1999 का है जब पुणे जिले के कारी गांव में घोलप परिवार की कई शादियाँ एक साथ हो रही थीं। 26 अप्रैल को एक बारात के दौरान हुए छोटे से झगड़े ने खून-खराबे का रूप ले लिया। अगले दिन यानी 27 अप्रैल को छह लोगों का एक समूह नवी अली के पास एक जीप को रोक देता है, जिसमें अंकुश घोलप और उसके रिश्तेदार सवार थे।
गवाहों के अनुसार, आरोपी मोटरसाइकिलों पर सवार होकर आए और उनके पास धारदार हथियार थे। उन्होंने पीड़ितों को जीप से बाहर घसीट कर बेरहमी से हमला किया। अंकुश की मौके पर ही मौत हो गई जबकि दो लोग गंभीर रूप से घायल हुए।
पुणे की सत्र अदालत ने ट्रायल के दौरान केवल दो आरोपियों को हत्या का दोषी ठहराया था और बाकी को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था। लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने बाद में उस फैसले को पलटते हुए पांचों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 और 307 के साथ धारा 149 के तहत दोषी ठहराया। इन्हीं में से तीन-खारुसे, शिरवाले और पवार-ने सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील दायर की थी।
अदालत के अवलोकन
सुनवाई के दौरान बचाव पक्ष ने दलील दी कि हत्या का “साझा उद्देश्य” साबित नहीं हुआ और गवाहों के बयानों में विरोधाभास हैं, जिससे अभियोजन की कहानी संदिग्ध हो जाती है। साथ ही यह भी कहा गया कि एक आरोपी का नाम एफआईआर में नहीं था और किसी से हथियार की बरामदगी भी नहीं हुई।
हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि तीनों चश्मदीद गवाहों-जिनमें दो घायल बचे हुए थे-ने स्पष्ट, सुसंगत और परस्पर मेल खाते बयान दिए हैं।
अदालत ने कहा, “पीडब्ल्यू-1, पीडब्ल्यू-7 और पीडब्ल्यू-9 के बयान स्वाभाविक हैं और सभी महत्वपूर्ण तथ्यों पर एक-दूसरे की पुष्टि करते हैं।” न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि इन बयानों की पुष्टि मेडिकल रिपोर्ट से होती है, जिनमें कई गहरी चोटें दर्ज हैं जो चाकू और ‘सत्तूर’ (छोटी कुल्हाड़ी) जैसे हथियारों से मेल खाती हैं।
बचाव पक्ष की यह दलील भी अदालत ने अस्वीकार की कि घटना अचानक हुई थी। पीठ ने कहा, “जिस तरह आरोपी एक साथ पहुंचे, धारदार हथियारों से लैस थे, और जिस प्रकार हमला समन्वित ढंग से किया गया - यह सब पूर्वनियोजन को दर्शाता है। उनका आचरण स्पष्ट रूप से हत्या करने की साझा मंशा को दिखाता है।”
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 149 आईपीसी के तहत यदि कोई व्यक्ति किसी अवैध भीड़ का सदस्य है और अपराध उसके साझा उद्देश्य की पूर्ति में होता है, तो उस भीड़ का हर सदस्य दोषी माना जाएगा, भले ही उसने खुद घातक वार न किया हो।
फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष दिया कि हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के “असंगत बरी करने” के आदेश को सही तरीके से पलटा है और साक्ष्यों के आधार पर दोष सिद्ध किया है।
निर्णय में कहा गया, “अभियोजन ने संदेह से परे यह सिद्ध कर दिया है कि तीनों अभियुक्तों का साझा उद्देश्य हत्या करना था। हाईकोर्ट के निष्कर्षों में न तो कोई कानूनी त्रुटि है और न कोई असंगति।”
इस आदेश के साथ, 26 साल पुराना यह मामला अपने अंतिम पड़ाव पर पहुँच गया - तीनों दोषियों की उम्रकैद की सजा अब सुप्रीम कोर्ट की मुहर से पक्की हो गई है।
Case: Haribhau @ Bhausaheb Dinkar Kharuse & Ors. vs State of Maharashtra (2025)
Case Type: Criminal Appeal Nos. 1755 of 2011 & 150–151 of 2013
Citation: 2025 INSC 1266
Bench: Justice Vipul M. Pancholi and Justice Prashant Kumar Mishra
Court: Supreme Court of India
Date of Judgment: October 29, 2025