इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (IBC) के तहत प्रेफरेंस शेयरहोल्डर्स की स्थिति को स्पष्ट करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 28 अक्टूबर 2025 को एक अहम फैसला सुनाया। कोर्ट ने ईपीसी कंस्ट्रक्शंस इंडिया लिमिटेड की मेटिक्स फर्टिलाइजर्स एंड केमिकल्स लिमिटेड के खिलाफ अपील को खारिज करते हुए कहा कि क्यूम्युलेटिव रिडीमेबल प्रेफरेंस शेयर (CRPS) रखने वाले निवेशक वित्तीय ऋणदाता नहीं माने जा सकते, भले ही उनके रिडेम्पशन की अवधि समाप्त हो गई हो।
पृष्ठभूमि
यह विवाद ईपीसी कंस्ट्रक्शंस (पूर्व में एस्सार प्रोजेक्ट्स इंडिया लिमिटेड) और मेटिक्स फर्टिलाइजर्स के बीच पश्चिम बंगाल में उर्वरक संयंत्र के निर्माण अनुबंध से जुड़ा था। मेटिक्स पर लगभग ₹570 करोड़ का भुगतान बकाया था, जिसके चलते दोनों पक्षों ने 2015 में यह तय किया कि ₹250 करोड़ की राशि को 8% क्यूम्युलेटिव रिडीमेबल प्रेफरेंस शेयरों में परिवर्तित किया जाएगा।
बाद में मेटिक्स ने इन शेयरों को तीन वर्षों में रिडीम नहीं किया। ईपीसी की दिवालियापन प्रक्रिया शुरू होने के बाद उसके लिक्विडेटर ने IBC की धारा 7 के तहत कार्यवाही दायर की, यह दावा करते हुए कि परिपक्व CRPS से उत्पन्न राशि “वित्तीय ऋण” है जिसका भुगतान नहीं हुआ। एनसीएलटी और एनसीएलएटी दोनों ने इस याचिका को यह कहते हुए खारिज किया कि प्रेफरेंस शेयर निवेश हैं, ऋण नहीं। इसके बाद ईपीसी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
कोर्ट की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने निचली अदालतों के निर्णय से सहमति जताई और कहा कि प्रेफरेंस शेयर कंपनी की शेयर पूंजी का हिस्सा हैं, ऋण नहीं। “प्रेफरेंस शेयरों पर चुकाई गई राशि ऋण नहीं होती, इसलिए यह देनदारी नहीं बनती,” कोर्ट ने कहा।
न्यायमूर्ति विश्वनाथन ने कहा कि कंपनियों अधिनियम की धारा 55 के अनुसार, ऐसे शेयर केवल तभी रिडीम किए जा सकते हैं जब कंपनी को लाभ हो या नई शेयर पूंजी जुटाई जाए। इन शर्तों के बिना रिडेम्पशन देय नहीं होता और इसलिए IBC की धारा 3(12) के तहत ‘डिफॉल्ट’ की स्थिति उत्पन्न नहीं होती।
पीठ ने लालचंद सुराना बनाम हैदराबाद वनस्पति लिमिटेड और राधा एक्सपोर्ट्स (इंडिया) प्रा. लि. बनाम के.पी. जयराम जैसे पुराने मामलों का हवाला देते हुए कहा कि रिडेम्पशन में देरी होने पर भी प्रेफरेंस शेयरधारक शेयरधारक ही रहते हैं, ऋणदाता नहीं। कोर्ट ने वकील निरंजन रेड्डी की दलील को खारिज करते हुए कहा, “अंडा पक चुका है, अब उसे उलट नहीं सकते।”
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि कंपनी के लेखा खातों में “अनसिक्योर्ड लोन” जैसे शब्दों का उपयोग असल संबंध को नहीं बदलता। “लेखा प्रविष्टियां वास्तविक संविदात्मक स्थिति पर हावी नहीं हो सकतीं,” पीठ ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया बनाम सीआईटी के हवाले से कहा।
निर्णय
अपील को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ईपीसी कंस्ट्रक्शंस, एक प्रेफरेंस शेयरधारक के रूप में, IBC की दिवालियापन प्रक्रिया नहीं शुरू कर सकता। कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि देनदारियों को CRPS में बदलने से ईपीसी का ऋणदाता का दर्जा समाप्त हो गया और वह मात्र निवेशक रह गया।
कोर्ट ने कहा, “यहां किसी छिपे हुए उद्देश्य की बात नहीं है। असली मंशा केवल देनदारी को प्रेफरेंशियल शेयरहोल्डिंग में बदलने की थी।”
यह फैसला स्पष्ट रूप से स्थापित करता है कि क्यूम्युलेटिव और रिडीमेबल अधिकारों वाले प्रेफरेंस शेयरधारक भी वित्तीय ऋणदाता नहीं माने जा सकते और वे IBC के तहत दिवालियापन प्रक्रिया शुरू करने के पात्र नहीं हैं।
Case Title: EPC Constructions India Ltd. (through Liquidator) v. Matix Fertilizers and Chemicals Ltd.
Citation: 2025 INSC 1259 (Supreme Court of India)
Coram: Justices J.B. Pardiwala and K.V. Viswanathan
Date of Judgment: 28 October 2025










