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बॉम्बे हाईकोर्ट: बेटा और बहू कानूनी अधिकार के बिना माता-पिता के घर में निवास का दावा नहीं कर सकते

Shivam Y.

बॉम्बे हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि बुजुर्ग माता-पिता अपने स्वयं के घर से बेटे-बहू को निकाल सकते हैं, यह अधिकार वरिष्ठ नागरिक कानून द्वारा संरक्षित है।

बॉम्बे हाईकोर्ट: बेटा और बहू कानूनी अधिकार के बिना माता-पिता के घर में निवास का दावा नहीं कर सकते

बुजुर्गों के अधिकारों की रक्षा करते हुए एक महत्वपूर्ण फैसले में, बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने स्पष्ट किया है कि बुजुर्ग माता-पिता को अपनी इच्छा के विरुद्ध अपने बेटे और बहू को अपने स्वामित्व वाली संपत्ति में रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। यह फैसला चंदीराम आनंदराम हेमनानी बनाम वरिष्ठ नागरिक अपीलीय प्राधिकरण मामले में न्यायमूर्ति प्रफुल्ल खुबलकर द्वारा 18 जून 2025 को सुनाया गया।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि

"सिर्फ इस आधार पर कि बेटे और बहू को पहले घर में रहने की अनुमति दी गई थी, उन्हें कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं होता।"
— न्यायमूर्ति प्रफुल्ल खुबलकर

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मामले की पृष्ठभूमि

यह याचिका 67 वर्षीय चंदीराम हेमनानी और उनकी पत्नी द्वारा संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत दायर की गई थी, जिसमें वरिष्ठ नागरिकों के संरक्षण के लिए बनाए गए अधिनियम 2007 के अंतर्गत उनके अधिकारों को लागू करने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ताओं ने शादी के बाद अपने बेटे और बहू को घर में रहने की अनुमति दी थी, लेकिन संबंधों में तनाव और बहू द्वारा झूठे मुकदमे व घरेलू हिंसा की शिकायतों के चलते उन्हें वरिष्ठ नागरिक प्राधिकरण के समक्ष बेदखली के लिए आवेदन करना पड़ा।

18 फरवरी 2019 को ट्रिब्यूनल ने बेटे-बहू को 30 दिनों के भीतर घर खाली करने का आदेश दिया था। इस आदेश को बहू ने अपीलीय प्राधिकरण में चुनौती दी, जिसने वरिष्ठ नागरिकों को सिविल कोर्ट में जाने की सलाह देते हुए आदेश को पलट दिया।

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लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपीलीय प्राधिकरण के निर्णय को खारिज कर दिया और कहा कि वरिष्ठ नागरिकों को सिविल मुकदमे में धकेलना कानून की मंशा के खिलाफ है।

"अपील प्राधिकरण ने कानून की मूल भावना को नजरअंदाज कर अति-तकनीकी रवैया अपनाया है।"
— बॉम्बे हाईकोर्ट

हाईकोर्ट ने यह दोहराया कि वरिष्ठ नागरिक अधिनियम एक कल्याणकारी कानून है, जिसका उद्देश्य सिर्फ भरण-पोषण ही नहीं बल्कि बुजुर्गों के जीवन और संपत्ति की रक्षा करना भी है।

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न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को उद्धृत करते हुए कहा:

"उम्र एक दिन सभी को जकड़ लेती है और कई बार बुजुर्ग पूरी तरह दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं – मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से।"
सुप्रीम कोर्ट

कोर्ट ने यह भी कहा कि बहू को यदि किसी वैवाहिक अधिकार का दावा करना है, तो वह अलग से कर सकती है, लेकिन इसके नाम पर वह अपने ससुराल वालों के वैध अधिकारों का हनन नहीं कर सकती।

यह भी पाया गया कि बहू ने बाद में एक अलग मकान खरीदा है, लेकिन फिर भी वह अपने सास-ससुर के घर में बनी रही – जबकि उसका वहां कोई कानूनी अधिकार नहीं था।

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बॉम्बे हाईकोर्ट ने 7 अगस्त 2020 को पारित अपीलीय आदेश को रद्द करते हुए ट्रिब्यूनल द्वारा पारित 18 फरवरी 2019 का बेदखली आदेश बहाल कर दिया।

"बेटा और बहू 30 दिनों के भीतर याचिकाकर्ताओं का घर खाली करें।"

साथ ही, कोर्ट ने आदेश दिया कि बहू और बेटा फरवरी 2019 से प्रति माह ₹20,000 की दर से किराया अदा करें और याचिका का खर्च भी वहन करें।

केस का शीर्षक: चंदीराम आनंदराम हेमनानी बनाम वरिष्ठ नागरिक अपीलीय न्यायाधिकरण (रिट याचिका 7794/2020)

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