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चिकित्सा बीमा दावा निपटाने में देरी पर मानसिक पीड़ा के लिए मुआवज़ा मिल सकता है, लेकिन यह आपराधिक अपराध नहीं है: दिल्ली हाईकोर्ट

20 Apr 2025 2:00 PM - By Vivek G.

चिकित्सा बीमा दावा निपटाने में देरी पर मानसिक पीड़ा के लिए मुआवज़ा मिल सकता है, लेकिन यह आपराधिक अपराध नहीं है: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने एक अहम फ़ैसले में स्पष्ट किया है कि मेडिकल बीमा दावे के निपटान में देरी मानसिक उत्पीड़न के लिए मुआवज़े का कारण बन सकती है, लेकिन इसे भारतीय दंड संहिता के तहत आपराधिक अपराध नहीं माना जा सकता।

न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा ने मैक्स सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल के खिलाफ शशांक गर्ग द्वारा दायर याचिका को खारिज करते हुए कहा:

"अस्पतालों में अंतिम बिलों के निपटान के दौरान रोगियों को होने वाली परेशानी कोई नई बात नहीं है। ऐसी स्थिति अक्सर रोगियों को पहले से ही बीमारी की मानसिक पीड़ा से जूझने के बाद झेलनी पड़ती है।"

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पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता, जो पेशे से अधिवक्ता हैं, ने मैक्स हॉस्पिटल में सिस्टिसरकोसिस की सर्जरी करवाई थी। वह मैक्स बूपा द्वारा जारी एक कैशलेस बीमा पॉलिसी के धारक थे। बीमा कंपनी द्वारा ₹75,000 की आंशिक पूर्व-अनुमोदन के बावजूद, उनसे सर्जरी से पहले ₹1.45 लाख जमा करने को कहा गया।

सर्जरी के बाद अंतिम बीमा स्वीकृति अस्पताल से डिस्चार्ज के कुछ घंटे पहले ही प्राप्त हुई, जिससे उन्हें छुट्टी मिलने में देरी हुई।

उनकी मुख्य शिकायत थी कि ₹57,332 उनकी एडवांस राशि में से बिना अनुमति के काट ली गई, जबकि बीमा कंपनी ने पूरी राशि स्वीकृत कर दी थी। साथ ही उन्होंने आरोप लगाया कि उन्हें अस्पताल में गलत तरीके से रोका गया और अस्पताल ने धोखाधड़ी, आपराधिक षड्यंत्र और विश्वासघात जैसे अपराध किए, जो कि आईपीसी की धारा 420, 406, 342 और 120बी के अंतर्गत आते हैं।

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हाईकोर्ट ने सेशंस कोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा जिसमें अस्पताल कर्मचारियों के समन को रद्द कर दिया गया था। अदालत ने पाया कि अस्पताल की ओर से कोई धोखाधड़ी की मंशा नहीं थी और निर्णय में कहा:

"याचिकाकर्ता को पहले से ही भुगतान की प्रक्रिया और आवश्यक राशि की जानकारी दे दी गई थी। यह कहना कि अस्पताल ने जानबूझकर पैसा वसूला, उचित नहीं है।"

इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया कि अंतिम बिल में ₹12,495 की छूट नहीं जोड़ी गई थी, लेकिन याचिकाकर्ता द्वारा शिकायत करने पर उसे तुरंत सही कर दिया गया। डिस्चार्ज में हुई देरी केवल प्रक्रियात्मक थी, ना कि गलत तरीके से रोके जाने का मामला।

"यह एक कठिन शर्त प्रतीत हो सकती है, लेकिन इसे धोखाधड़ी या अनुचित लाभ की नीयत नहीं माना जा सकता… कोई आपराधिक धोखाधड़ी नहीं बनती।"

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न्यायमूर्ति कृष्णा ने बीमा कंपनियों से मंजूरी में देरी को लेकर व्यापक चिंता जताई:

"हालांकि कई बार अदालतों ने रेगुलेटरी सुधारों और एनएचआरसी द्वारा प्रस्तावित 'रोगी अधिकार पत्र' की सिफारिश की है, लेकिन आज तक इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। यह विषय केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा आईआरडीए और मेडिकल काउंसिल के साथ मिलकर सुलझाया जाना चाहिए।"

अदालत ने कहा कि कोई भी आपराधिक आरोप साबित नहीं होता और याचिका खारिज कर दी गई:

"इस मामले में कोई भी धोखाधड़ी या आपराधिक मंशा सिद्ध नहीं होती। बीमा कंपनी की स्वीकृति में देरी से हुए डिस्चार्ज में विलंब को आपराधिक अपराध नहीं माना जा सकता।"

यह फ़ैसला स्पष्ट करता है कि नागरिक असुविधा और आपराधिक कृत्य में फर्क होता है और साथ ही यह बीमा क्लेम प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए नीति सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

उपरोक्त के मद्देनजर, न्यायालय ने सत्र न्यायालय के समन आदेश को रद्द करने के आदेश को बरकरार रखा।

केस का शीर्षक: शशांक गर्ग बनाम राज्य एवं अन्य (सी.आर.एल.एम.सी. 3583/2018)

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