22 सितंबर 2025 को दिए गए एक विस्तृत फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट ने सीआईएसएफ के सब-इंस्पेक्टर खाजा हुसैन की याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने एक महिला सहकर्मी के यौन उत्पीड़न के मामले में विभागीय कार्रवाई को चुनौती दी थी। न्यायमूर्ति सुब्रमोनियम प्रसाद और विमल कुमार यादव की खंडपीठ ने आंतरिक जांच की पुष्टि करते हुए कहा कि हुसैन का व्यवहार “वर्दीधारी बल के अधिकारी के लिए अनुचित” था और दी गई सजा “वास्तव में हल्की” है।
पृष्ठभूमि
यह मामला लेडी सब-इंस्पेक्टर महाश्वेता पटेल द्वारा दायर शिकायत से शुरू हुआ, जब दोनों अधिकारी सीआईएसएफ की विंध्यनगर इकाई में तैनात थे। पटेल ने आरोप लगाया कि हुसैन ने उन्हें अश्लील व्हाट्सएप संदेश भेजे, अनुचित फोन कॉल किए, और जुलाई 2015 में “दुराशय से” उनके घर में प्रवेश करने की कोशिश की।
विभागीय जांच के दौरान पटेल ने कहा कि आरोपी अक्सर बातचीत में “आई लव यू” और “डार्लिंग” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करता था और एक बार उसने उन पर जबरदस्ती करने की कोशिश की। पटेल के माता-पिता और सहकर्मियों सहित कई गवाहों ने उसके बयान का समर्थन किया।
जांच समिति ने कॉल रिकॉर्डिंग, संदेश और गवाहों के बयानों की जांच के बाद हुसैन को दोषी पाया और उस पर दो वर्षों के लिए एक स्तर वेतन में कटौती की सजा दी। बाद में सीआईएसएफ के महानिदेशक ने भी इस आदेश को बरकरार रखा और हुसैन की पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी।
अदालत की टिप्पणियाँ
हाईकोर्ट में याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि शिकायत झूठी है और दोनों के बीच के संवाद “दोस्ती और सहमति” के तहत हुए थे। उनका कहना था कि शिकायतकर्ता ने शादी के लिए ब्लैकमेल किया और बाद में बदले की भावना से मामला दर्ज किया।
सरकारी वकील मोनिका अरोड़ा ने जवाब में कहा कि उपलब्ध सबूत - जिनमें व्हाट्सएप संदेश भी शामिल हैं - स्पष्ट रूप से यौन उत्पीड़न (POSH) अधिनियम, 2013 की परिभाषा में आते हैं, जो कार्यस्थल पर अनुचित आचरण को प्रतिबंधित करता है।
खंडपीठ ने कहा,
“प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है। जांच समिति ने सभी साक्ष्यों पर विचार किया और उसके निष्कर्ष तर्कसंगत हैं।” अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि वह अनुशासनात्मक कार्यवाही में अपील न्यायालय नहीं है और सबूतों की दोबारा जांच उसका काम नहीं।
सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों - जैसे स्टेट ऑफ आंध्र प्रदेश बनाम श्री राम राव और यूनियन ऑफ इंडिया बनाम पी. गुणशेखरन - का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 226 के तहत उसका दायरा केवल प्रक्रिया की निष्पक्षता की जांच तक सीमित है, न कि तथ्यात्मक निष्कर्षों की पुनर्समीक्षा तक।
न्यायालय ने आगे कहा,
"याचिकाकर्ता ने स्वयं स्वीकार किया है कि उसने अशोभनीय संदेश भेजे। एक विवाहित अधिकारी के रूप में उस पर नैतिक दायित्व था कि वह ऐसा व्यवहार न करे। उसका आचरण वर्दीधारी सेवा में अपेक्षित अनुशासन के अनुरूप नहीं है।"
न्यायमूर्ति प्रसाद ने टिप्पणी की,
"यह अदालत मानती है कि याचिकाकर्ता के साथ बहुत नरमी बरती गई है। दिए गए दुराचार के लिए सजा वास्तव में हल्की है।"
फैसला
प्राकृतिक न्याय या प्रक्रिया में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी न पाते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने हुसैन की रिट याचिका खारिज कर दी। अदालत ने 2016 के अनुशासनात्मक आदेश और 2017 के पुनरीक्षण आदेश दोनों को बरकरार रखते हुए कहा कि आंतरिक जांच निष्पक्ष और कानूनी रूप से उचित थी।
फैसले में कहा गया,
“याचिकाकर्ता का आचरण अनुशासित बल के अधिकारी के लिए अनुचित था। दी गई सजा उसके दुराचार के अनुरूप है।”
इसके साथ ही खंडपीठ ने मामला समाप्त कर दिया, जिससे लगभग एक दशक तक चली यह अनुशासनिक कार्यवाही अंततः समाप्त हुई।
Case Title: Khaja Hussain v. Director General, Central Industrial Security Force & Ors.
Case Number: W.P.(C) 1712/2019
Date of Judgment: 22nd September 2025
Counsel for Petitioner: Mr. Ajit Kakkar and Mr. Tejas Bhonge, Advocates
Counsel for Respondents:
Ms. Monika Arora, CGSC
Mr. Subhrdeep Saha, Ms. Anamika Thakur, Mr. Prabhat Kumar, Mr. Abhinav Verma, Advocates
Mr. Rohtas (CISF representative)