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केरल हाईकोर्ट का फैसला: मुस्लिम पुरुष की दूसरी शादी दर्ज करने से पहले पहली पत्नी को सुनवाई का मौका देना अनिवार्य

Shivam Y.

केरल उच्च न्यायालय ने लैंगिक समानता के सिद्धांतों की पुष्टि करते हुए कहा कि केरल विवाह नियमों के तहत मुस्लिम पुरुष की दूसरी शादी को पंजीकृत करने से पहले पहली पत्नी की बात सुनी जानी चाहिए। - मुहम्मद शरीफ सी. एवं अन्य बनाम केरल राज्य एवं अन्य।

केरल हाईकोर्ट का फैसला: मुस्लिम पुरुष की दूसरी शादी दर्ज करने से पहले पहली पत्नी को सुनवाई का मौका देना अनिवार्य

एक अहम फैसले में, जो व्यक्तिगत कानून और लैंगिक समानता दोनों को छूता है, केरल हाईकोर्ट ने कहा कि कोई मुस्लिम पुरुष अपनी दूसरी शादी को Kerala Registration of Marriages (Common) Rules, 2008 के तहत पहली पत्नी को सुने बिना पंजीकृत नहीं करा सकता। न्यायमूर्ति पी.वी. कुन्हिकृष्णन ने यह कहते हुए एक मुस्लिम जोड़े की याचिका खारिज की कि “जब महिलाओं के अधिकार प्रभावित होते हैं, तो संविधानिक मूल्यों की समानता और न्याय की भावना किसी भी व्यक्तिगत कानून से ऊपर होती है।”

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पृष्ठभूमि

यह मामला मुहम्मद शरीफ सी. (44 वर्ष) और आबीदा टी.सी. (38 वर्ष) से जुड़ा है, जो क्रमशः कन्नूर और कासरगोड जिले के निवासी हैं। दोनों ने दावा किया कि उन्होंने 2017 में मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह किया था, जबकि शरीफ की पहली शादी अब भी वैध थी। उन्होंने स्थानीय पंजीकरण अधिकारी से अपनी शादी दर्ज करने का अनुरोध किया, यह कहते हुए कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून पुरुषों को चार पत्नियाँ रखने की अनुमति देता है।

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पंचायत रजिस्ट्रार ने यह विवाह दर्ज करने से इंकार कर दिया, जिसके बाद याचिकाकर्ताओं ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।

याचिकाकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि यह इनकार मनमाना है, क्योंकि मुस्लिम कानून दूसरी शादी की अनुमति देता है, और पंजीकरण तो केवल एक औपचारिक प्रक्रिया है जिससे बच्चों और संपत्ति के अधिकार सुरक्षित किए जा सकें।

अदालत की टिप्पणियाँ

न्यायमूर्ति कुन्हिकृष्णन ने यह प्रश्न उठाया कि क्या दूसरी शादी के पंजीकरण से पहले पहली पत्नी को नोटिस देना अनिवार्य है। उन्होंने Jubairiya v. Saidalavi N. (2025) मामले का उल्लेख किया, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि क़ुरान का मूल संदेश एकपत्नीवाद है और बहुपत्नी प्रथा केवल अपवादस्वरूप ही स्वीकार्य है - वह भी न्याय और निष्पक्षता की शर्त पर।

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“इन आयतों की भावना और उद्देश्य एकपत्नीवाद है, और बहुपत्नी प्रथा केवल अपवाद है,” न्यायाधीश ने उद्धृत किया, यह बताते हुए कि क़ुरान पत्नियों के बीच न्याय पर ज़ोर देता है।

न्यायमूर्ति ने कहा कि भले ही मुस्लिम कानून एक पुरुष को एक से अधिक पत्नियाँ रखने की अनुमति देता है, लेकिन “कोई भी धार्मिक ग्रंथ धोखे या छिपाव की अनुमति नहीं देता।”

“क़ुरान या मुस्लिम कानून किसी पुरुष को यह अधिकार नहीं देता कि वह अपनी पहली पत्नी के जीवित रहते और विवाह वैध रहते किसी दूसरी महिला से संबंध बनाए,” उन्होंने टिप्पणी की।

अदालत ने कहा कि 2008 के नियमों की धारा 11 के तहत पंजीकरण अधिकारी को विवाह विवरण की जाँच करनी होती है, जिसमें पति-पत्नी की वैवाहिक स्थिति और जीवित जीवनसाथी की जानकारी शामिल है। इससे अधिकारी को यह पता चल सकता है कि यह विवाह किसी पक्ष की दूसरी शादी है या नहीं।

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संविधान सर्वोपरि, परंपरा गौण

न्यायमूर्ति कुन्हिकृष्णन ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के तहत लैंगिक समानता और मानव गरिमा हर नागरिक का अधिकार है, और कोई भी प्रशासनिक निकाय इसे व्यक्तिगत कानूनों के नाम पर नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता।

“पुरुष महिलाओँ से श्रेष्ठ नहीं हैं। लैंगिक समानता केवल महिलाओं का मुद्दा नहीं, यह मानवता का मुद्दा है,” अदालत ने कहा।

उन्होंने आगे कहा कि मुस्लिम महिलाएँ चुपचाप यह नहीं देख सकतीं कि उनके पति दूसरी शादी करा रहे हैं और उसे दर्ज भी करा रहे हैं।

“कम से कम पंजीकरण की प्रक्रिया में तो मुस्लिम महिलाओं को सुनवाई का अवसर मिलना चाहिए,” न्यायाधीश ने स्पष्ट किया।

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फैसला

अपने 15-पृष्ठीय आदेश में अदालत ने कहा कि यदि किसी मुस्लिम पुरुष की पहली शादी वैध है और वह दूसरी शादी का पंजीकरण कराना चाहता है, तो रजिस्ट्रार को पहली पत्नी को नोटिस देना होगा। यदि पहली पत्नी आपत्ति जताती है, तो रजिस्ट्रार को विवाह दर्ज नहीं करना चाहिए और मामला सिविल अदालत में भेज देना चाहिए।

क्योंकि इस मामले में पहली पत्नी को पक्षकार नहीं बनाया गया था, इसलिए अदालत ने याचिका खारिज कर दी।

“पहली पत्नी इस मामले में पक्षकार नहीं है, इसलिए यह याचिका विचार योग्य नहीं है,” न्यायाधीश ने कहा।

हालाँकि, उन्होंने यह स्पष्ट किया कि यदि याचिकाकर्ता नया आवेदन देते हैं, तो रजिस्ट्रार को उचित प्रक्रिया अपनानी होगी और पहली पत्नी को सुनवाई का अवसर देना होगा।

Case Title: Muhammad Shareef C. & Anr. vs. State of Kerala & Anr.

Case Number: Writ Petition (Civil) No. 26010 of 2025

Date of Judgment: 30 October 2025

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