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अधीनस्थों पर नियंत्रण खोना कदाचार नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जेल अधीक्षक की पेंशन कटौती रद्द की

16 Apr 2025 10:28 AM - By Vivek G.

अधीनस्थों पर नियंत्रण खोना कदाचार नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जेल अधीक्षक की पेंशन कटौती रद्द की

एक महत्वपूर्ण फैसले में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की है कि अधीनस्थों पर नियंत्रण खोना "कदाचार" नहीं माना जा सकता। इसलिए, अदालत ने तीन वर्षों तक जेल अधीक्षक की पेंशन में 10% कटौती के आदेश को रद्द कर दिया

यह फैसला सिविल सेवा नियमावली के नियम 351-A के तहत आया है, जो केवल गंभीर कदाचार या सरकारी धन की क्षति की स्थिति में ही पेंशन रोकने या काटने की अनुमति देता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि केवल अधीनस्थों पर नियंत्रण न होना इस श्रेणी में नहीं आता।

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मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता को वर्ष 1994 में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा डिप्टी जेलर के पद पर नियुक्त किया गया था। पदोन्नति के बाद, उन्होंने 1 जुलाई 2017 को इटावा के जेल अधीक्षक के रूप में कार्यभार संभाला।

बाद में उन पर दो सजायाफ्ता कैदियों के फरार होने के आरोप लगे। इसके बाद विभागीय जांच शुरू की गई और 11 नवंबर 2019 को चार्जशीट जारी की गई, जिसमें आरोप था कि याचिकाकर्ता का अधीनस्थ अधिकारियों पर कोई नियंत्रण नहीं है, जिससे जेल की सुरक्षा व्यवस्था कमजोर हुई और कैदी भाग गए।

जांच रिपोर्ट 30 जुलाई 2020 को दाखिल की गई। 30 नवंबर 2021 को सेवानिवृत्त होने के बावजूद, नियम 351-A के तहत स्वीकृति लेकर जांच जारी रखी गई।

जांच के बाद, याचिकाकर्ता की पेंशन से 15% कटौती का आदेश पारित किया गया, जबकि जेलर और डिप्टी जेलरों को केवल चेतावनी (censure) जैसी मामूली सजा दी गई।

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इससे आहत होकर, याचिकाकर्ता ने 11 जनवरी 2022 के आदेश को चुनौती दी। मुकदमे के दौरान राज्य सरकार ने आदेश वापस ले लिया और उत्तरदाता संख्या 3 को मामले की समीक्षा करने का निर्देश दिया गया, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले सुरेंद्र पांडेय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य को ध्यान में रखने को कहा गया।

बाद में, 21 जून 2023 को एक नया आदेश पारित हुआ, जिसमें याचिकाकर्ता की पेंशन से तीन वर्षों के लिए 10% कटौती का निर्देश दिया गया। इस आदेश को फिर से हाईकोर्ट में चुनौती दी गई।

न्यायमूर्ति नीरज तिवारी ने मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट रूप से कहा:

“यह स्पष्ट है कि जेल की सुरक्षा में मुख्य भूमिका अन्य अधीनस्थ अधिकारियों की होती है, और अधीक्षक की भूमिका केवल पर्यवेक्षण की होती है। अन्य आरोपी कर्मचारी जैसे कि जेलर और डिप्टी जेलर को आदेशों के क्रियान्वयन की बड़ी जिम्मेदारी होती है।”

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अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि याचिकाकर्ता ने कई पत्र लिखे, जिनमें जेल की खराब स्थिति, सीसीटीवी कैमरे का खराब होना, और सुरक्षा स्टाफ की कमी जैसे मुद्दों का उल्लेख किया गया था, लेकिन प्रशासन द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की गई

“इसलिए, याचिकाकर्ता को किसी भी लापरवाही या कर्तव्य में ढिलाई के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, विशेष रूप से इस तथ्य को देखते हुए कि उसने जेल की स्थिति सुधारने के लिए कई पत्र लिखे थे, जिन पर कोई ध्यान नहीं दिया गया,” अदालत ने कहा।

अदालत ने यह भी पाया कि उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल के अनुसार, जेलर और डिप्टी जेलर को आदेशों के क्रियान्वयन की अधिक जिम्मेदारी होती है। फिर भी, याचिकाकर्ता को अधिक कठोर दंड दिया गया, जो भेदभावपूर्ण है।

मुख्य मुद्दा यह था कि क्या पर्यवेक्षण में चूक को नियम 351-A के तहत कदाचार माना जा सकता है। इस पर अदालत ने सुरेंद्र पांडेय बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले पर भरोसा किया।

उस फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था:

“सिविल सेवा नियमावली के नियम 351-A के अंतर्गत, राज्यपाल केवल उन्हीं मामलों में पूरी या आंशिक पेंशन रोक या काट सकता है, जब विभागीय जांच के बाद कर्मचारी को गंभीर कदाचार या सेवा के दौरान अथवा सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी धन की क्षति का दोषी पाया जाए।”

वर्तमान मामले में अदालत ने पाया कि तथ्य समान हैं, और इसलिए याचिकाकर्ता को कोई सजा नहीं दी जा सकती

इन सभी बिंदुओं के आधार पर, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 10% पेंशन कटौती का आदेश रद्द कर दिया और याचिकाकर्ता को राहत दी।

अदालत ने स्पष्ट किया कि अधीनस्थों पर नियंत्रण न होना, जिससे कैदी भाग जाते हैं, यह गंभीर कदाचार नहीं है, और इसलिए नियम 351-A के तहत सजा योग्य नहीं है।

केस का शीर्षक: राज किशोर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, प्रधान सचिव, जेल प्रशासन एवं सुधार विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ एवं 2 अन्य [रिट ए संख्या - 6716/2024]