बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह दोहराया है कि अंग प्रत्यारोपण की मानवीय आवश्यकता भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अदालत ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए, अंग प्रत्यारोपण के लिए मरीजों के पंजीकरण की वर्तमान प्रक्रिया पर सवाल उठाया और सुझाव दिया कि ऐसे मरीजों के लिए एक अलग सूची बनाई जाए जिन्हें निकट भविष्य में प्रत्यारोपण की आवश्यकता पड़ सकती है।
यह आदेश न्यायमूर्ति जी.एस. कुलकर्णी और न्यायमूर्ति अद्वैत एम. सेठना की खंडपीठ ने पुणे निवासी हर्षद भोईटे द्वारा दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए पारित किया। भोईटे, जो पॉलीसिस्टिक किडनी डिजीज के कारण क्रॉनिक किडनी डिजीज (सीकेडी) स्टेज-5 से पीड़ित हैं, फिलहाल डायलिसिस पर नहीं हैं लेकिन जल्द ही उन्हें किडनी ट्रांसप्लांट की आवश्यकता होगी। इसके बावजूद, पुणे के जोनल ट्रांसप्लांट कोऑर्डिनेशन सेंटर ने उन्हें मृतक दाता किडनी ट्रांसप्लांट के लिए पंजीकरण देने से इनकार कर दिया।
यह इनकार "डिसीज्ड डोनर किडनी ट्रांसप्लांट गाइडलाइंस" के खंड 3 के आधार पर किया गया, जिसमें कहा गया है कि केवल वही मरीज पंजीकरण के पात्र हैं जो अंतिम चरण की किडनी विफलता से पीड़ित हों और तीन महीने से अधिक समय से डायलिसिस पर हों।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए अधिवक्ता डॉ. उदय वरुंजीकर ने कहा, "याचिकाकर्ता की चिंता यह है कि जीवन का अधिकार, अंग प्रत्यारोपण प्राप्त करने के अधिकार को भी सम्मिलित करता है और इसके लिए उन्हें पंजीकृत किया जाना आवश्यक है ताकि यदि भविष्य में गंभीर स्थिति उत्पन्न हो, तो चिकित्सकीय प्रमाण के आधार पर उन्हें किडनी प्राप्त करने का अधिकार मिल सके।"
वरुंजीकर ने दलील दी कि मरीज की हालत बिगड़ने तक प्रतीक्षा करवाना न केवल अनुचित है बल्कि अमानवीय भी है। उन्होंने अदालत से आग्रह किया कि ऐसे मरीजों के लिए एक अलग तंत्र बनाया जाए जो डायलिसिस पर नहीं हैं लेकिन चिकित्सकीय रूप से शीघ्र ही प्रत्यारोपण की आवश्यकता वाले हैं।
इस तर्क से सहमति जताते हुए अदालत ने कहा,
मानव जीवन में अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त जीवन के अधिकार का एक प्रत्यक्ष पहलू है। प्रथम दृष्टया ऐसा नहीं माना जा सकता कि जब किसी मरीज को तत्काल नहीं तो निकट भविष्य में अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता होगी, तो उस स्थिति को नजरअंदाज किया जा सकता है।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि वर्ष 1994 का "मानव अंग और ऊतक प्रत्यारोपण अधिनियम" (Transplantation of Human Organs and Tissues Act) अंग प्रत्यारोपण की प्रक्रिया को चिकित्सकीय उद्देश्य से विनियमित करने और व्यावसायिक शोषण को रोकने के लिए लागू किया गया था। अधिनियम के तहत बनाए गए किसी भी नियम या दिशा-निर्देश की व्याख्या इस प्रकार होनी चाहिए जिससे जीवन के अधिकार की संवैधानिक गारंटी बरकरार रहे।
अदालत ने कहा,
"यह उपयुक्त होगा कि प्रतिवादी यह विचार करें कि क्या ऐसे मरीजों के लिए एक अलग पंजीकरण व्यवस्था की जा सकती है जिन्हें भविष्य में निकट समय में अंग प्रत्यारोपण की आवश्यकता पड़ सकती है।"
अदालत ने यह भी जोड़ा कि इससे ऐसे मरीजों को अनावश्यक विलंब और कठिनाइयों से राहत मिल सकेगी।
खंडपीठ ने राज्य सरकार और अन्य प्रतिवादियों को इस सुझाव पर गंभीरता से विचार करने और जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है। अब यह मामला अगली सुनवाई के लिए 17 जून, 2025 को सूचीबद्ध किया गया है।
जब मरीज के स्वास्थ्य और जीवन की स्थिति ही नाजुक और चिंताजनक हो, तो पंजीकरण जैसी बुनियादी प्रक्रिया को पूरी तरह सहज और सरल बनाया जाना चाहिए, अदालत ने टिप्पणी की।