केरल हाईकोर्ट ने वसीयत जैसे दस्तावेजों के निष्पादन को सिद्ध करने की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कहा है कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 के तहत कम से कम एक गवाह की गवाही आवश्यक है, लेकिन जब गवाह उपलब्ध नहीं हों, तब धारा 69 के प्रावधान लागू किए जा सकते हैं।
यह फैसला न्यायमूर्ति सतीश निनन और न्यायमूर्ति पी. कृष्ण कुमार की खंडपीठ ने डॉ. के.आर. लीला देवी बनाम के.आर. राजाराम एवं अन्य (RFA No. 715/2013) में सुनाया।
यह मामला वादी द्वारा पारिवारिक संपत्तियों के बंटवारे को लेकर दायर मुकदमे से उत्पन्न हुआ था, जिसमें विवाद इस बात को लेकर था कि क्या वसीयत के आधार पर एक आवासीय संपत्ति (प्लेंट B अनुसूची) को बंटवारे से बाहर रखा जा सकता है।
वादी का तर्क था कि वसीयत संदेहास्पद है, गवाहों की गवाही नहीं हुई, और उनकी माता की शारीरिक व मानसिक स्थिति वसीयत करने योग्य नहीं थी। वहीं प्रतिवादी ने पंजीकृत वसीयत और दस्तावेज लेखक (DW5) की गवाही के आधार पर इसकी वैधता साबित की।
“वसीयत का मात्र पंजीकरण, वसीयतकर्ता को वसीयत के विधिसम्मत प्रमाणन की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं करता।”
— केरल हाईकोर्ट
अदालत ने कहा कि वसीयत प्रस्तुत करने वाले की जिम्मेदारी है कि वह सभी संदेहों को दूर करे और यह सिद्ध करे कि वसीयतकर्ता की मानसिक स्थिति ठीक थी, उसने दस्तावेज को समझकर हस्ताक्षर किया, और कम से कम दो गवाहों की उपस्थिति में वसीयत संपन्न हुई।
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इस मामले में मूल वसीयत अनुपलब्ध थी, पर उसकी प्रतिलिपि और पंजीयन रिकॉर्ड उपलब्ध थे। गवाह मृत थे। दस्तावेज लेखक (DW5) ने न्यायालय में बताया कि वसीयत उनके समक्ष तैयार हुई और उस पर वसीयतकर्ता व गवाहों ने हस्ताक्षर किए।
अदालत ने कहा:
“यदि प्रस्तुतकर्ता यह साबित कर दे कि गवाह मृत हैं, तो वसीयत को उस स्थिति में भी प्रमाणित किया जा सकता है, यदि निष्पादक और कम से कम एक गवाह के हस्ताक्षर उनके हस्तलिखित हैं।”
अदालत ने C.G. रवींद्रन बनाम C.G. गोपी (2015) और हराधन महथा बनाम दुखु महथा (1993) मामलों का हवाला दिया और कहा कि ऐसी परिस्थितियों में धारा 69 के तहत वसीयत सिद्ध की जा सकती है।
स्टॉक गवाहों के मुद्दे पर, अदालत ने कहा कि उनके बार-बार दस्तावेजों में गवाही देने से वसीयत की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। V. कलाईवाणी बनाम M.R. इलंगोवन (2024) में इस सिद्धांत को मान्यता दी गई थी।
वादी द्वारा वसीयतकर्ता की मानसिक स्थिति पर संदेह जताया गया, लेकिन कोई चिकित्सा प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया। जबकि वादी स्वयं डॉक्टर थीं। अदालत ने फोटो और गवाहों के बयानों के आधार पर माना कि वसीयतकर्ता स्वस्थ थीं।
“मौजूदा साक्ष्य अदालत को संतुष्ट करते हैं कि वसीयत स्वतंत्र इच्छा और स्वस्थ मानसिक स्थिति में की गई थी।”
— केरल हाईकोर्ट
अदालत ने यह भी कहा कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि वसीयतकर्ता पर कोई दबाव या प्रभाव डाला गया था। वसीयत के समय वह प्रतिवादी के साथ नहीं रह रही थीं।
अंततः, अदालत ने अपील खारिज कर दी और निचली अदालत का फैसला बरकरार रखा।
मामले का नाम: डॉ. के.आर. लीला देवी बनाम के.आर. राजाराम एवं अन्य
मामला संख्या: RFA No. 715/2013
निर्णय तिथि: 29 मई 2025