एक अहम फैसले में, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने उस फैसले को रद्द कर दिया है जिसमें एक पति की नसबंदी फेल होने के बाद पत्नी के गर्भवती होने पर दंपत्ति को ₹1 लाख का मुआवजा दिया गया था। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जब तक चिकित्सा लापरवाही का ठोस सबूत न हो, तब तक राज्य को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
हरियाणा राज्य द्वारा दायर की गई अपीलें, कुरुक्षेत्र के अतिरिक्त जिला न्यायाधीश द्वारा 15 जून 2001 को दिए गए फैसले के खिलाफ थीं। इस फैसले में राम सिंह और उनकी पत्नी शारदा रानी को ₹1 लाख का मुआवजा दिया गया था, क्योंकि 1986 में नसबंदी के बावजूद उनकी पत्नी गर्भवती हो गई थीं और उन्होंने पांचवीं संतान को जन्म दिया।
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मामले की पृष्ठभूमि
राम सिंह और शारदा रानी, जिनकी शादी 1977 में हुई थी, के 1986 तक चार बच्चे हो चुके थे। उन्होंने परिवार नियोजन के तहत नसबंदी का विकल्प चुना। 9 अगस्त 1986 को, राम सिंह ने पिहोवा के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉ. आर.के. गोयल से नसबंदी करवाई। ऑपरेशन के प्रमाण के रूप में एक सर्टिफिकेट भी जारी किया गया और उन्हें सरकार की जनसंख्या नियंत्रण योजना के तहत प्रोत्साहन राशि भी दी गई।
ऑपरेशन के बाद राम सिंह को सख्त हिदायत दी गई थी:
- तीन महीने तक यौन संबंध से बचें,
- इस दौरान कंडोम का प्रयोग करें,
- और तीन महीने बाद सीमेन टेस्ट कराएं।
हालांकि, इन निर्देशों के बावजूद शारदा रानी गर्भवती हो गईं। राम सिंह ने फिर सिविल अस्पताल जाकर जांच कराई, जहां उन्हें बताया गया कि नसबंदी ऑपरेशन असफल रहा। इसके बाद उन्होंने पांचवीं संतान (चौथी बेटी) को जन्म दिया, जिसे उन्होंने “अनचाहा और अवांछित” बताया।
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इसके बाद दंपत्ति ने ₹2 लाख का हर्जाना मांगते हुए दो अलग-अलग मुकदमे दायर किए, जिसमें डॉक्टर और सरकार पर लापरवाही का आरोप लगाया गया। ट्रायल कोर्ट ने शुरुआत में इनकी याचिका खारिज कर दी थी, लेकिन बाद में अपीलीय न्यायालय ने मुआवजा मंजूर कर लिया। अब हाईकोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी गई थी।
न्यायमूर्ति निधि गुप्ता, जो इस अपील की सुनवाई कर रही थीं, ने मामले की गहराई से समीक्षा की और निचली अदालत के फैसले को रद्द कर दिया। उन्होंने कई महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं:
“निस्संदेह, राम सिंह की नसबंदी असफल रही, लेकिन निचली अपीलीय अदालत को यह भी ध्यान में रखना चाहिए था कि वादीगण ने यह नहीं झुठलाया कि डॉ. आर.के. गोयल ने हजारों ऐसे ऑपरेशन किए हैं।”
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कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सिर्फ ऑपरेशन के असफल होने से डॉक्टर की लापरवाही नहीं मानी जा सकती। मेडिकल आंकड़ों के अनुसार नसबंदी के फेल होने की दर 0.3% से 9% तक होती है। वादी इस दुर्लभ श्रेणी में आते हैं। साथ ही, उन्होंने ऑपरेशन से पहले यह दस्तावेजी सहमति दी थी कि यदि ऑपरेशन असफल होता है, तो सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।
कोर्ट ने यह भी कहा कि ऑपरेशन के बाद दिए गए निर्देशों का पालन नहीं किया गया। वादी इस बात का कोई सबूत पेश नहीं कर सके कि राम सिंह ने तीन महीने बाद सीमेन की जांच करवाई थी। इस पर बार-बार पूछे जाने पर भी वादी पक्ष कोई स्पष्ट जवाब नहीं दे सका।
"रिकॉर्ड से यह स्पष्ट है कि वादी यह साबित नहीं कर सके कि उन्होंने डॉक्टर के दिए गए निर्देशों का पालन किया या कोई लापरवाही नहीं की।"
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि हालांकि वादी ने गर्भावस्था को अवांछित बताया, लेकिन इसे समाप्त कराने की कोई कोशिश नहीं की गई।
“शारदा रानी ने गर्भपात कराने का प्रयास तक नहीं किया। उन्होंने केवल इतना कहा कि वे कमजोर थीं, लेकिन इसका कोई चिकित्सा प्रमाण नहीं दिया गया।”
इसके अलावा, डॉक्टर आर.के. गोयल के खिलाफ कोई ठोस लापरवाही का आरोप साबित नहीं हो सका। उन्होंने हजारों सफल नसबंदी ऑपरेशन किए थे।
वादी पक्ष ने पहले सुप्रीम कोर्ट के फैसले State of Haryana v. Santra पर भरोसा किया, लेकिन हाईकोर्ट ने इसे इस केस से भिन्न बताया।
“यह केस अपने तथ्यों पर आधारित था और इसमें लापरवाही स्पष्ट रूप से साबित हुई थी। इस मामले में ऐसा कोई तथ्य मौजूद नहीं है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि Medical Termination of Pregnancy Act, 1971 के तहत गर्भावस्था को रोका जा सकता था, लेकिन इसका प्रयोग नहीं किया गया।
सभी तथ्यों और कानूनी पहलुओं पर विचार करने के बाद हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया:
“दिनांक 15.06.2001 को अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, कुरुक्षेत्र द्वारा पारित निर्णय और डिक्री को निरस्त किया जाता है।”
इसके साथ ही ₹1 लाख का मुआवजा भी वापस ले लिया गया और राज्य पर कोई जिम्मेदारी नहीं डाली गई।
श्री दुष्यंत सहारन, एएजी हरियाणा।
श्री राजवंत कौशिश, प्रतिवादी के अधिवक्ता।
श्री दीप इंदर सिंह वालिया, प्रो-फॉर्मा प्रतिवादी के अधिवक्ता।
शीर्षक: हरियाणा राज्य एवं अन्य बनाम राम सिंह एवं अन्य