22 मई को सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में न्यायपालिका में महिलाओं की कम भागीदारी पर चिंता जताई और कहा कि महिलाओं की बढ़ती भागीदारी न केवल लैंगिक समानता के लिए जरूरी है, बल्कि इससे न्यायिक फैसलों की गुणवत्ता भी बेहतर होगी।
“कई लोगों ने इस बात पर जोर दिया है कि न्यायपालिका में विविधता और समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले न्यायाधीशों की उपस्थिति से न्यायपालिका सामाजिक और व्यक्तिगत संदर्भों को बेहतर समझ सकती है,” कोर्ट ने टिप्पणी की।
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यह टिप्पणी जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस एससी शर्मा की पीठ ने एक महिला न्यायिक अधिकारी को बहाल करते हुए की, जिन्हें पहले सरकारी सेवा में काम करने की जानकारी नहीं देने के आरोप में पद से हटा दिया गया था। वह अनुसूचित जनजाति वर्ग से थीं।
कोर्ट ने कहा कि महिलाओं की न्यायपालिका में प्रभावी भागीदारी को समझने के लिए तीन मुख्य पहलुओं को देखना जरूरी है:
- कानूनी पेशे में महिलाओं की एंट्री
- पेशे में महिलाओं की संख्या बनाए रखना और उसमें वृद्धि करना
- महिलाओं की वरिष्ठ पदों तक पदोन्नति
कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता ने सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के बाद न्यायिक सेवा में प्रवेश लिया था, भले ही उसने यह जानकारी नहीं दी थी। ऐसे में उसे पद से हटाने का कोई औचित्य नहीं था।
जस्टिस एससी शर्मा द्वारा लिखित फैसले में बताया गया कि न्यायपालिका में महिलाओं की मौजूदगी किस तरह व्यापक स्तर पर समाज को लाभ पहुंचाती है:
“वरिष्ठ स्तर पर महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति से लिंग आधारित रूढ़ियों को तोड़ा जा सकता है और पुरुषों व महिलाओं की भूमिकाओं को लेकर सोच में बदलाव आ सकता है।”
कोर्ट ने आगे यह भी कहा:
- महिला न्यायिक अधिकारियों की मौजूदगी अन्य महिलाओं को न्याय की ओर बढ़ने और कानून में करियर बनाने के लिए प्रेरित करती है।
- महिला न्यायाधीशों की अधिक संख्या और दृश्यता महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाने में आत्मविश्वास देती है।
- विविध दृष्टिकोण न्यायिक फैसलों को अधिक समावेशी और संतुलित बनाते हैं।
कोर्ट ने याचिकाकर्ता की सराहना की, जिन्होंने सामाजिक कठिनाइयों के बावजूद शिक्षा प्राप्त की और न्यायपालिका तक का सफर तय किया। कोर्ट ने माना कि ऐसे लोग न्यायपालिका में विविधता लाकर लोकतंत्र को मजबूत करते हैं।
“देश को एक ऐसी न्यायपालिका से लाभ होगा जो सक्षम, प्रतिबद्ध और सबसे जरूरी – विविध हो। याचिकाकर्ता ने सामाजिक कलंक से लड़ते हुए जो शिक्षा प्राप्त की है, वह अंततः न्याय प्रणाली और लोकतंत्र को लाभ पहुंचाएगी।”
मामले के तथ्यों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शो कॉज नोटिस और बर्खास्तगी का आदेश उचित नहीं था। इसलिए दोनों को रद्द किया गया।
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“इस अदालत का मानना है कि मामले की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए शो कॉज नोटिस और बर्खास्तगी का आदेश निरस्त किया जाना चाहिए और इन्हें निरस्त किया जाता है।”
केस का शीर्षक: पिंकी मीना बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय जोधपुर एवं अन्य, एसएलपी(सी) संख्या 23529/2023