जिस समय सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के एक दो दशक पुराने दहेज मृत्यु मामले में अपना फैसला सुनाया, अदालत कक्ष असामान्य रूप से शांत था। विस्तृत निर्णय पढ़ते हुए पीठ ने साफ कर दिया कि यह मामला केवल एक परिवार तक सीमित नहीं है, बल्कि इस बात से जुड़ा है कि समाज में गहराई से जमी कुरीतियों से जुड़े अपराधों से अदालतों को कैसे निपटना चाहिए। उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें पति और उसकी बुजुर्ग मां को एक युवा महिला की मौत के मामले में बरी कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट इससे सहमत नहीं हुआ।
पृष्ठभूमि
यह मामला जून 2001 का है। नसीरीन, जिसकी उम्र मुश्किल से बीस वर्ष थी और जिसकी शादी को अभी एक साल से थोड़ा अधिक समय ही हुआ था, बिजनौर जिले में अपने ससुराल में गंभीर रूप से झुलसने के बाद उसकी मौत हो गई। उसके पिता ने पुलिस को बताया कि पति अजमल बेग और उसके परिवार के लोग लगातार मोटरसाइकिल, रंगीन टीवी और ₹15,000 नकद की मांग कर रहे थे। घटना से ठीक एक दिन पहले भी यह मांग दोहराई गई थी। जब परिवार यह रकम देने में असमर्थ रहा, तो नसीरीन को प्रताड़ित किया गया, धमकाया गया और अंततः आग के हवाले कर दिया गया।
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ट्रायल कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के गवाहों पर भरोसा करते हुए अजमल और उसकी मां जमिला को दहेज मृत्यु और क्रूरता के आरोप में दोषी ठहराया। लेकिन 2003 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गवाहों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए इस दोषसिद्धि को पलट दिया और यहां तक कह दिया कि “गरीब परिवार” ऐसी मांगें कैसे कर सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट का नजरिया बिल्कुल अलग था। साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन करते हुए पीठ ने कहा कि सभी प्रमुख गवाह दहेज की मांग और उत्पीड़न को लेकर एकमत हैं। अदालत ने कहा, “मोटरसाइकिल, रंगीन टीवी और ₹15,000 की मांग संदेह से परे सिद्ध हो चुकी है,” और यह भी जोड़ा कि यह मांग महिला की मौत से ठीक एक दिन पहले दोहराई गई थी।
हाईकोर्ट के तर्क पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की। अदालत ने यह मानने से इनकार किया कि गरीबी दहेज मांग को असंभव बना देती है। पीठ के शब्दों में, ऐसा तर्क “तर्कसंगत नहीं लगता।” कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि गवाहों के बयानों में छोटे-मोटे विरोधाभास उस स्थिति में पूरे मामले को कमजोर नहीं करते, जब अपराध घर की चारदीवारी के भीतर घटित हुआ हो।
कानून को सरल शब्दों में समझाते हुए कोर्ट ने कहा कि यदि किसी महिला की शादी के सात वर्ष के भीतर असामान्य परिस्थितियों में मृत्यु होती है और यह साबित हो जाता है कि उसकी मौत से “थोड़ा पहले” दहेज से जुड़ी क्रूरता हुई थी, तो कानून अपने आप इसे दहेज मृत्यु मानता है, जब तक कि आरोपी इसके विपरीत कुछ साबित न कर दें।
निर्णय
राज्य सरकार की अपील स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के बरी करने के आदेश को रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई अजमल बेग और जमिला की दोषसिद्धि को धारा 304B और 498Aआईपीसी और दहेज निषेध अधिनियम के तहत बहाल कर दिया। अजमल को चार सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण कर अपनी सजा काटने का निर्देश दिया गया। वहीं, जमिला की 94 वर्ष की उम्र को देखते हुए, अदालत ने उसकी दोषसिद्धि तो बरकरार रखी, लेकिन मानवीय आधार पर उसे जेल भेजने से परहेज किया।
Case Title: State of Uttar Pradesh vs. Ajmal Beg & Another
Case No.: Criminal Appeal Nos. 132–133 of 2017
Case Type: Criminal Appeal (Dowry Death & Cruelty under IPC and Dowry Prohibition Act)
Decision Date: 2025 (Supreme Court of India)










