सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना द्वारा लिखित एक फैसले में स्पष्ट किया है कि जब कोई अदालत एक विशिष्ट अवधि के लिए आजीवन कारावास की सजा तय करती है - जैसे कि बिना छूट के 20 साल की वास्तविक कारावास - तो दोषी उस अवधि को पूरा करने पर रिहाई का हकदार है, बशर्ते कोई अन्य मामला लंबित न हो।
यह मामला 2002 के नितीश कटारा हत्याकांड में दोषी सुख़देव यादव से जुड़ा है, जिन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 364 और 201 के तहत दोषी ठहराया गया था। 2015 में दिल्ली हाईकोर्ट ने उनकी सजा बढ़ाकर उम्रकैद कर दी, जिसमें 20 साल का वास्तविक कारावास बिना रिमिशन और ₹10,000 का जुर्माना तय किया गया। इस सजा को सुप्रीम कोर्ट ने मामूली संशोधन के साथ बरकरार रखा।
Read also:-
यादव ने 9 मार्च 2025 को 20 साल की सजा पूरी कर ली। इसके बावजूद, दिल्ली सरकार का तर्क था कि उन्हें रिहाई से पहले रिमिशन के लिए आवेदन करना होगा, क्योंकि यह उम्रकैद का मामला है। लेकिन कोर्ट ने “रिमिशन” और “सजा की पूर्णता” के बीच अंतर स्पष्ट किया।
"एक बार जब तय की गई सजा की अवधि पूरी हो जाती है, तो दोषी को रिमिशन मांगे बिना रिहा किया जाना चाहिए," पीठ ने कहा और जोर दिया कि हाईकोर्ट का 20 साल की सजा तय करने का आदेश अंतिम और बाध्यकारी है।
कोर्ट ने कहा कि रिमिशन का मतलब है जब सजा पूरी नहीं हुई हो और क़ानूनी या संवैधानिक अधिकारों के तहत समय से पहले रिहाई दी जाती है। लेकिन निश्चित अवधि वाली सजा पूरी होने पर, यह स्वतः समाप्त हो जाती है और इसमें कार्यपालिका का कोई विवेकाधिकार नहीं होता।
जून 2025 में यादव को तीन महीने की फरलो (अस्थायी रिहाई) देते समय कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी रिहाई सजा पूरी होने का कानूनी परिणाम है, कोई रियायत नहीं।
यह फैसला दोहराता है कि अदालत द्वारा तय की गई निश्चित अवधि वाली उम्रकैद का पालन उसी तरह होना चाहिए, ताकि दोषियों को सजा की अवधि से अधिक न रोका जाए और न ही उन्हें अनावश्यक रिमिशन प्रक्रिया से गुजरना पड़े।
केस का शीर्षक:- सुखदेव यादव @ पहलवान बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) और अन्य