इस हफ्ते कोर्ट हॉल में सुनवाई कुछ लंबी चली, और दशकों पुराने ज़मीन से जुड़े रिकॉर्ड एक बार फिर सामने आ गए। आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने दो जुड़ी हुई रिट याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए विशाखापत्तनम के येंददा इलाके में अटकी संपत्ति रजिस्ट्रेशन को सीधे मंजूरी देने से इनकार कर दिया। इसके बजाय, अदालत ने पक्षकारों को ज़िला कलेक्टर के पास जाकर ताज़ा निर्णय लेने को कहा।
न्यायमूर्ति बी. कृष्ण मोहन 2018 में सब-रजिस्ट्रार द्वारा जारी उन इनकार पत्रों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रहे थे, जिनमें गिफ्ट डीड को यह कहते हुए लंबित रखा गया था कि ज़मीन अर्बन लैंड सीलिंग नियमों के तहत “प्रतिबंधित” सूची में दर्ज है।
पृष्ठभूमि
ये याचिकाएं वरिष्ठ नागरिक एस. पद्मंगा बुच्चामरी और एक अन्य खरीदार द्वारा दायर की गई थीं। उन्होंने गजुवाका के संयुक्त सब-रजिस्ट्रार द्वारा जारी सूचना पत्रों को चुनौती दी थी। ये दस्तावेज येंददा गांव के सर्वे नंबर 101/1 से 101/5 में स्थित प्लॉट्स से जुड़े थे।
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रजिस्ट्रेशन इस आधार पर रोकी गई थी कि ज़मीन रजिस्ट्रेशन एक्ट की धारा 22-ए(1)(डी) के तहत प्रतिबंधित सूची में आती है। यह प्रावधान उन संपत्तियों के लेन-देन पर रोक लगाता है, जिन पर कथित तौर पर अर्बन लैंड सीलिंग (यूएलसी) की कार्यवाही लंबित या प्रभावी रही हो। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि यूएलसी के मामले 1970 और 1980 के दशक के हैं, जिनमें कई गंभीर खामियां हैं और कुछ मामलों में तो कार्यवाही उन ज़मीनधारकों के खिलाफ जारी रखी गई जो उस समय जीवित भी नहीं थे।
उन्होंने यह भी दलील दी कि ज़मीन एक सहकारी हाउसिंग सोसायटी के माध्यम से कई रजिस्टर्ड बिक्री दस्तावेजों से होकर गुज़री है और कभी भी वास्तविक कब्जा नहीं छीना गया। सबसे अहम बात, उनके अनुसार, यह थी कि यूएलसी कानून बहुत पहले ही निरस्त हो चुका है, ऐसे में ज़मीन को अब भी “यूएलसी भूमि” बताना नाइंसाफी है।
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अदालत की टिप्पणियां
न्यायमूर्ति कृष्ण मोहन ने कहा कि मामला सिर्फ एक इनकार पत्र का नहीं है, बल्कि इस बात का है कि क्या ज़मीन को अब भी प्रतिबंधित सूची में रखा जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के पुराने फैसलों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि यूएलसी के तहत काग़ज़ों में ज़मीन का सरकार में निहित होना अपने आप में पर्याप्त नहीं है।
अदालत ने टिप्पणी की, “केवल रिकॉर्ड में ज़मीन का निहित होना यह साबित नहीं करता कि भौतिक कब्जा भी लिया गया था,” और इस बात पर ज़ोर दिया कि कब्जा और कानूनी प्रक्रिया बेहद महत्वपूर्ण हैं।
हालांकि, अदालत ने जल्दबाज़ी में निर्णय देने से भी परहेज़ किया। न्यायाधीश ने साफ किया कि प्रतिबंधित सूची से ज़मीन हटाने का अधिकार ज़िला कलेक्टर के पास है, न कि सब-रजिस्ट्रार के पास। चूंकि याचिकाकर्ताओं ने कलेक्टर के समक्ष औपचारिक रूप से विस्तृत आवेदन नहीं दिया था, इसलिए हाईकोर्ट ने इस स्तर पर मामले के गुण-दोष पर फैसला देना उचित नहीं समझा।
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निर्णय
अंततः, अदालत ने दोनों रिट याचिकाओं का निस्तारण करते हुए इनकार पत्रों को सीधे रद्द नहीं किया। याचिकाकर्ताओं को चार सप्ताह के भीतर ज़िला कलेक्टर के समक्ष आवेदन करने की छूट दी गई, ताकि रजिस्ट्रेशन एक्ट की धारा 22-ए(1)(डी) के तहत प्रतिबंधित सूची से उनकी संपत्तियों को हटाने पर विचार किया जा सके।
अदालत ने निर्देश दिया कि कलेक्टर सभी पक्षों को सुनकर, रिकॉर्ड और ज़मीन की स्थिति की जांच कर, कानून के अनुसार कारणयुक्त आदेश पारित करें, वह भी संभव हो तो चार महीने के भीतर। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि कलेक्टर के निर्णय के बाद ही सब-रजिस्ट्रार रजिस्ट्रेशन पर दोबारा विचार करेगा। अंतरिम आदेश, यदि कोई हों, समाप्त माने जाएंगे और लागत के संबंध में कोई आदेश नहीं दिया गया।
Case Title: S. Padmanga Butchamari vs State of Andhra Pradesh & Others
Case No.: W.P. No. 13820 of 2020 (with W.P. No. 13447 of 2020)
Case Type: Writ Petition (Article 226 – Property / Registration / Urban Land Ceiling)
Decision Date: 20 December 2025