दशकों पुराने भूमि विवाद में उड़ीसा हाईकोर्ट ने बेदखली का रास्ता साफ किया, डिक्री देनदार की बार-बार आपत्तियों पर जताई सख्ती

By Vivek G. • December 25, 2025

कल्याणी स्वैन एवं अन्य बनाम बिजय कुमार स्वैन एवं अन्य, उड़ीसा उच्च न्यायालय ने भूमि आदेश के निष्पादन को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी, निषेधाज्ञा के बावजूद बेदखली की अनुमति दी, और निष्पादन की कार्यवाही को तेजी से पूरा करने का निर्देश दिया।

गुरुवार सुबह अदालत कक्ष में खामोशी थी, जब न्यायमूर्ति शशिकांत मिश्रा ने अंततः आदेश सुनाया, लेकिन संदेश बिल्कुल साफ और सख्त था। चार दशकों से अधिक समय तक चली मुकदमेबाजी और कई दौर की आपत्तियों के बाद, उड़ीसा हाईकोर्ट ने उस आदेश में दखल देने से इनकार कर दिया, जिसमें एक ऐसे जजमेंट डेब्टर की बेदखली की अनुमति दी गई थी, जो अदालत के अनुसार लंबे समय से तय डिक्री के क्रियान्वयन को टालने की कोशिश कर रहा था। कटक की भूमि से जुड़े 1981 के इस विवाद ने एक बार फिर दिखा दिया कि डिक्री हासिल करना अक्सर लड़ाई का आधा हिस्सा ही होता है।

Read in English

पृष्ठभूमि

यह विवाद 1981 के टाइटल सूट नंबर 148 से शुरू हुआ, जो कृष्णा स्वैन द्वारा दायर किया गया था। इसमें भूमि पर स्वामित्व की घोषणा, कब्जे की पुष्टि और स्थायी निषेधाज्ञा की मांग की गई थी। ट्रायल कोर्ट ने 1983 में उनके पक्ष में फैसला सुनाया। यह निर्णय अपील में भी कायम रहा और बाद में हाईकोर्ट में दूसरी अपील में भी टिक गया, जिससे 2008 में मामला अंतिम रूप से समाप्त हो गया।

Read also:- राजनीश कुमार पांडेय मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई टाली, अगली सुनवाई तक राज्यों को भर्ती प्रक्रिया जारी

इसके बावजूद, डिक्री के क्रियान्वयन की प्रक्रिया अपने आप में एक लंबी कहानी बन गई। डिक्री धारकों ने 2012 में निष्पादन अदालत का रुख किया और आरोप लगाया कि अपीलें खारिज होने के बाद जजमेंट डेब्टर ने जबरन जमीन पर कब्जा कर लिया। इसके बाद सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47 के तहत आपत्तियों की एक श्रृंखला शुरू हुई-कुल तीन-जिनमें निष्पादन की वैधता पर ही सवाल उठाए गए। हर आपत्ति खारिज हुई, जिसमें जनवरी 2023 में जिला अदालत के समक्ष दायर सिविल रिवीजन भी शामिल था।

फिर भी संतुष्ट न होकर, जजमेंट डेब्टर ने संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत एक बार फिर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उनका तर्क था कि चूंकि मूल डिक्री केवल कब्जे की पुष्टि और निषेधाज्ञा तक सीमित थी, इसलिए उसे बेदखली के जरिए लागू नहीं किया जा सकता।

न्यायालय की टिप्पणियां

न्यायमूर्ति मिश्रा इस दलील से सहमत नहीं हुए। अदालत ने कहा कि एक ही आधार पर बार-बार दायर की जा रही आपत्तियों को अनंत काल तक स्वीकार नहीं किया जा सकता। सिविल मुकदमों की जमीनी हकीकत की ओर इशारा करते हुए पीठ ने कहा कि निष्पादन की कार्यवाही का दुरुपयोग अक्सर डिक्री को विफल करने के लिए किया जाता है, न कि उसका पालन करने के लिए।

Read also:- NIPER अनुशासनात्मक मामले में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के पुनर्बहाली आदेश पर सुप्रीम कोर्ट की रोक

अदालत ने सार रूप में टिप्पणी की, “जजमेंट डेब्टर इस बात से भी इनकार नहीं करता कि उसने कब्जा किया है,” और कहा कि इस स्तर पर तकनीकी आपत्तियां उठाना प्रक्रिया का खुला दुरुपयोग है। न्यायाधीश ने यह भी रेखांकित किया कि तीनों अदालतों ने लगातार डिक्री धारक के कब्जे की पुष्टि की थी और हस्तक्षेप पर रोक लगाई थी। यदि कोई पक्ष हर स्तर पर हारने के बाद जबरन जमीन पर काबिज हो जाता है, तो डिक्री को प्रभावी ढंग से लागू करने का एकमात्र तरीका उसी अवरोध को हटाना है।

सीमाबद्धता के प्रश्न पर अदालत ने स्पष्ट किया कि स्थायी निषेधाज्ञा देने वाली डिक्री पर सामान्य बारह वर्ष की सीमा लागू नहीं होती। लिमिटेशन एक्ट का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि जब हस्तक्षेप बाद में होता है, तो स्थायी निषेधाज्ञा के प्रवर्तन के लिए कोई निश्चित समय-सीमा नहीं है।

यह दलील भी खारिज कर दी गई कि निषेधाज्ञा की डिक्री से कब्जा दिलाने का आदेश नहीं दिया जा सकता। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि डिक्री धारक डिक्री से आगे कुछ नहीं मांग रहा है, बल्कि केवल उसका प्रभावी क्रियान्वयन चाहता है। डिक्री धारक को नया मुकदमा दायर करने के लिए मजबूर करना, अदालत के शब्दों में, पहले से ही दूसरी अपील तक कायम निर्णयों को “निरर्थक बना देना” होगा।

Read also:- सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट में एड-हॉक जजों की शक्तियों पर स्थिति स्पष्ट की, बेंच गठन का अधिकार मुख्य न्यायाधीशों

निर्णय

निष्पादन अदालत और पुनरीक्षण अदालत दोनों के तर्कों में कोई खामी न पाते हुए, हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी। पीठ ने निष्पादन अदालत को निर्देश दिया कि वह निष्पादन की कार्यवाही तेजी से आगे बढ़ाए और यथासंभव दो महीने के भीतर कानून के अनुसार उसे पूरा करे। इसके साथ ही, 1980 के दशक की शुरुआत में जन्मा यह विवाद अंततः अपने कानूनी अंत की ओर बढ़ता दिख रहा है।

Case Title: Kalyani Swain & Others v. Bijay Kumar Swain & Others

Case No.: CMP No. 153 of 2024

Case Type: Civil Miscellaneous Petition (Execution-related dispute under Articles 226 & 227 of the Constitution)

Decision Date: 19 December 2025

Recommended