उत्तर कर्नाटक से जुड़े एक बेहद झकझोर देने वाले मामले ने इस सप्ताह सुप्रीम कोर्ट में फिर से ध्यान खींचा, जिसमें पांच बच्चों की मां एक विधवा को जिंदा जला दिया गया था। आरोपी की दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए भी, अदालत ने इस बात की गहराई से जांच की कि सजा तय करते समय ट्रायल कोर्ट कितनी दूर तक जा सकता है। आपराधिक अपीलीय क्षेत्राधिकार में बैठी पीठ ने सजा के उस हिस्से को दुरुस्त किया, जिसे उसने कानूनी अतिरेक माना, हालांकि अपराध की नृशंसता को अदालत ने पूरी तरह स्वीकार किया।
पृष्ठभूमि
यह घटना 1 जनवरी 2014 की रात की है। अभियोजन के अनुसार, आरोपी, जो मृतका का रिश्ते में देवर था, लंबे समय से उस पर यौन संबंध बनाने का दबाव डाल रहा था। जब महिला ने इसका विरोध किया, तो आरोप है कि उसने उसकी झोपड़ी में केरोसिन डालकर आग लगा दी। महिला 60 प्रतिशत जलने के बावजूद दस दिनों तक जीवन और मृत्यु से जूझती रही, लेकिन अंततः अस्पताल में उसकी मौत हो गई।
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सेशंस कोर्ट ने आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी ठहराया और “प्राकृतिक जीवन की अंतिम सांस तक” आजीवन कारावास की सजा सुनाई। साथ ही, उसे रिहाई (रिमिशन) और हिरासत की अवधि के समायोजन (सेट-ऑफ) का लाभ देने से भी इनकार कर दिया गया। हाईकोर्ट ने इस फैसले को बरकरार रखा। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां शुरुआत में केवल यह सवाल था कि क्या ऐसी सजा कानूनन दी जा सकती है।
अदालत की टिप्पणियां
हालांकि नोटिस केवल सजा के मुद्दे तक सीमित था, फिर भी न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की अगुवाई वाली पीठ ने दोषसिद्धि को लेकर रिकॉर्ड खंगाला, खासकर इसलिए क्योंकि मृतका की बेटी समेत करीबी रिश्तेदार गवाह hostile हो गए थे। पड़ोसियों और मृतका के जीजा ने आरोपी को घटना स्थल पर देखा होना बताया। सबसे अहम, पुलिस अधिकारी और मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज दो मृत्यु पूर्व कथनों (डाइंग डिक्लेरेशन) में लगातार आरोपी को जिम्मेदार ठहराया गया।
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पीठ ने कहा, “हमारे विचार में दोषसिद्धि पूरी तरह मजबूत आधार पर टिकी हुई है,” और यह भी रेखांकित किया कि चिकित्सकीय साक्ष्य स्पष्ट रूप से इसे हत्या का मामला साबित करता है।
हालांकि, सजा के सवाल पर अदालत ने एक साफ सीमा खींची। स्वामी श्रद्धानंद और संविधान पीठ के फैसले वी. श्रीहरन जैसे पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए अदालत ने समझाया कि आजीवन कारावास का अर्थ कानून में पूरे जीवन तक की कैद होता है, लेकिन रिमिशन से वंचित करने या विशेष श्रेणी की सजा तय करने का अधिकार केवल संवैधानिक अदालतों को है। पीठ ने कहा, “सेशंस कोर्ट, जो कि दंड प्रक्रिया संहिता की देन है, वैधानिक रिमिशन या सेट-ऑफ को सीमित नहीं कर सकता।”
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 428 पर अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि विचाराधीन अवधि की हिरासत का लाभ न देना कानून के सीधे खिलाफ है और ऐसा निर्देश “टिक नहीं सकता।”
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निर्णय
अंततः सुप्रीम कोर्ट ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार किया। हत्या की दोषसिद्धि को बरकरार रखा गया। सजा को संशोधित करते हुए इसे धारा 302 आईपीसी के तहत साधारण आजीवन कारावास कर दिया गया, जिसमें “प्राकृतिक जीवन के अंत तक” वाला निर्देश हटा दिया गया। ट्रायल कोर्ट द्वारा रिमिशन और कम्यूटेशन पर लगाई गई रोक समाप्त कर दी गई और आरोपी को हिरासत में बिताई गई अवधि के सेट-ऑफ का लाभ देने का आदेश दिया गया। अन्य सजाएं यथावत रखी गईं और वे साथ-साथ चलेंगी। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि भविष्य में रिमिशन का प्रश्न सरकार की नीति और निर्णय पर निर्भर करेगा, इससे अधिक कुछ नहीं।
Case Title: Kiran vs The State of Karnataka
Case No.: Criminal Appeal arising out of SLP (Crl.) No. 15786 of 2024
Case Type: Criminal Appeal (Murder – Section 302 IPC)
Decision Date: 18 December 2025









