बॉम्बे हाईकोर्ट, औरंगाबाद बेंच ने हाल ही में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत एक आरोपी द्वारा दायर की गई आपराधिक रिट याचिका (संख्या 730/2024) खारिज कर दी। याचिकाकर्ता ने क्रॉस-एग्जामिनेशन के लिए एक गवाह को वापस बुलाने के अपने आवेदन को खारिज किए जाने के आदेश को चुनौती दी थी। अदालत ने न केवल याचिका खारिज की, बल्कि 50,000 रुपये का भारी जुर्माना भी लगाया, जिसमें आरोपी द्वारा बार-बार की गई देरी और अदालती कार्यवाही की अवहेलना को आधार बनाया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता, शशिकांत कोठावाड़े, पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 और 13(2) के साथ 13(1)(d) के तहत आरोप लगाए गए थे। मामला 2018 का है, जब अभियोजन ने PW-2, वास्तविक शिकायतकर्ता, की जांच की थी। क्रॉस-एग्जामिनेशन 16 नवंबर, 2018 को शुरू हुआ था, लेकिन आरोपी के वकील के अनुरोध पर इसे बार-बार स्थगित किया गया। वर्षों तक, ट्रायल कोर्ट ने क्रॉस-एग्जामिनेशन न करने के तीन "नो क्रॉस" आदेश पारित किए, क्योंकि बचाव पक्ष ने कई अवसरों के बावजूद गवाह का क्रॉस-एग्जामिनेशन नहीं किया।
आरोपी ने PW-2 को वापस बुलाने के लिए आवेदन (एक्सहिबिट 71 और 80) दायर किए, जिन्हें शर्तों के साथ मंजूरी दी गई। हालांकि, इन आदेशों के बाद भी, बचाव पक्ष ने क्रॉस-एग्जामिनेशन नहीं किया। 21 दिसंबर, 2023 को, गवाह पांच घंटे तक अदालत में इंतजार करता रहा, लेकिन आरोपी का वकील नहीं आया, जिसके कारण ट्रायल कोर्ट ने तीसरा "नो क्रॉस" आदेश पारित किया।
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याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि PW-2 का क्रॉस-एग्जामिनेशन करने का अवसर न देना आरोपी को गंभीर नुकसान पहुंचाएगा। उन्होंने उत्तराखंड राज्य बनाम तिलक सेठ और P. संजीव राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य जैसे फैसलों का हवाला दिया, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आरोपी के निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार पर जोर दिया गया था। वकील ने यह भी कहा कि यदि अनुमति दी जाए तो वे एक दिन में क्रॉस-एग्जामिनेशन पूरा कर लेंगे।
दूसरी ओर, CBI के विशेष अभियोजक, श्री सचिन पनाले ने याचिका का विरोध किया और गवाह का क्रॉस-एग्जामिनेशन न करने के आरोपी के बार-बार की गई विफलताओं को उजागर किया। उन्होंने स्वर्ण सिंह बनाम पंजाब राज्य के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें अनावश्यक स्थगन के कारण गवाहों के उत्पीड़न की आलोचना की गई थी।
न्यायमूर्ति किशोर सी. संत ने मामले के रिकॉर्ड का विस्तार से अध्ययन किया और आरोपी के "लापरवाह रवैये" को नोट किया। अदालत ने कहा:
"वर्तमान मामले में आरोपी का व्यवहार अदालती कार्यवाही के प्रति पूर्ण अवहेलना दर्शाता है। लिटिगेंट के व्यवहार के कारण अदालत का कीमती समय बर्बाद हुआ है। ऐसे हालात में सहानुभूति दिखाना व्यावहारिक रूप से ऐसी प्रथाओं को प्रोत्साहित करना होगा।"
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अदालत ने स्वर्ण सिंह के मामले का उल्लेख किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने लंबित मुकदमों और स्थगन के कारण गवाहों को होने वाली कठिनाइयों पर प्रकाश डाला था। हाईकोर्ट ने इन टिप्पणियों से सहमति जताई और कहा कि आरोपी का व्यवहार "शब्दों से परे निंदनीय" था।
निर्णय से मुख्य बिंदु
- अदालती कार्यवाही की मर्यादा: निर्णय में न्यायिक प्रक्रियाओं का सम्मान करने और अनावश्यक देरी से बचने के महत्व पर जोर दिया गया है।
- गवाह सुरक्षा: अदालत ने गवाहों के उत्पीड़न की आलोचना की, जो बार-बार स्थगन के कारण असुविधा और वित्तीय नुकसान झेलते हैं।
- न्यायिक जवाबदेही: अदालत ने रियायत देने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि गलत सहानुभूति न्याय प्रणाली को कमजोर करेगी।
- जुर्माना एक चेतावनी के रूप में: 50,000 रुपये का जुर्माना तुच्छ मुकदमेबाजी और देरी के खिलाफ एक स्पष्ट संदेश देता है।
केस का शीर्षक: शशिकांत विट्ठल कोठावड़े बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य।
केस संख्या: आपराधिक रिट याचिका संख्या 730/2024