एक महत्वपूर्ण निर्णय में, जिसने दीवानी और आपराधिक कार्यवाहियों के बीच की रेखा को स्पष्ट किया, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख उच्च न्यायालय ने रितिका जैन और अन्य के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द कर दिया। यह एफआईआर कथित वसीयत और कोडिसिल (वसीयत का परिशिष्ट) में जालसाजी के आरोपों से संबंधित थी। न्यायमूर्ति विनोद चटर्जी कौल ने 14 अक्टूबर 2025 को निर्णय सुनाते हुए कहा कि यह मामला “कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग” है, क्योंकि यही विवाद पहले से ही कई दीवानी अदालतों - गुरुग्राम जिला न्यायालय और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय - में लंबित था।
पृष्ठभूमि
यह मामला 2021 में अजय कुमार जैन, उनकी पत्नी रेनू जैन और उनके पुत्र नितिन जैन की मृत्यु के बाद शुरू हुए पारिवारिक उत्तराधिकार विवाद से उत्पन्न हुआ। शिकायतकर्ता नीतिका चौधरी - अजय कुमार जैन की बेटी - ने आरोप लगाया कि उनकी भाभी रितिका जैन ने अन्य लोगों के साथ मिलकर 4 मई 2021 की तारीख का एक झूठा कोडिसिल तैयार किया, जब उनके पिता जम्मू के कोविड वार्ड में भर्ती थे।
नीतिका का कहना था कि इस कोडिसिल के जरिए सारी संपत्ति अवैध रूप से रितिका के पति (दिवंगत नितिन जैन) के नाम कर दी गई, जिससे उन्हें उनके वैध 50% हिस्से से वंचित कर दिया गया।
वहीं याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह विवाद पूरी तरह दीवानी प्रकृति का है, जो पहले से ही गुरुग्राम की दीवानी अदालत में लंबित है, और नीतिका ने “परेशान करने के इरादे से” यह एफआईआर दर्ज करवाई है, जब उन्हें दीवानी अदालतों में कोई अनुकूल आदेश नहीं मिला।
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री प्रणव कोहली ने कहा, “जब दीवानी अदालत पहले से इस मुद्दे पर विचार कर रही है, तब आपराधिक कानून का सहारा लेना बदले की भावना के अलावा कुछ नहीं।”
अदालत के अवलोकन
न्यायमूर्ति कौल ने रिकॉर्ड का विस्तार से अध्ययन किया और पाया कि दोनों पक्ष 2021 से ही इसी संपत्ति को लेकर कई दीवानी मामलों में उलझे हुए हैं - जिनमें बंटवारे के मुकदमे, पुनरीक्षण याचिकाएँ और कंपनी कानून के तहत याचिकाएँ शामिल हैं। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों को 2022 में मध्यस्थता के लिए भी भेजा था।
फिर भी, शिकायतकर्ता ने जम्मू में एक और एफआईआर दर्ज करवाई, जिसमें वसीयत और कोडिसिल को जाली बताया गया। अदालत ने पाया कि यह कदम सीधे तौर पर लंबित दीवानी विवाद से जुड़ा हुआ था।
“वसीयत या कोडिसिल की वैधता का प्रश्न दीवानी अदालत ही तय करेगी, जो साक्ष्य रिकॉर्ड करने और दोनों पक्षों को सुनने के बाद ही निर्णय देगी,” न्यायमूर्ति कौल ने कहा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि आपराधिक कार्यवाही “दुरुपयोग” और “दबाव बनाने का तरीका” प्रतीत होती है।
अदालत ने भजन लाल बनाम हरियाणा राज्य (1992), इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन बनाम एनईपीसी इंडिया लिमिटेड (2006), और बिनोद कुमार बनाम बिहार राज्य (2014) जैसे कई सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि निजी दीवानी विवादों को निपटाने के लिए आपराधिक कानून का हथियार की तरह उपयोग नहीं किया जा सकता।
“न्यायिक प्रक्रिया को उत्पीड़न या अनावश्यक परेशानियों का औजार नहीं बनाया जाना चाहिए,” न्यायमूर्ति कौल ने टिप्पणी की, यह जोड़ते हुए कि जब भी आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग हो, उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है।
निर्णय
अदालत ने बख्शी नगर थाना, जम्मू में दर्ज एफआईआर संख्या 179/2022 को “कानूनी प्रक्रिया के स्पष्ट दुरुपयोग” मानते हुए पूरी तरह रद्द कर दिया।
न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 482 के तहत निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए कहा,
“यह मामला पूरी तरह दीवानी विवाद की श्रेणी में आता है, लेकिन प्रतिवादी संख्या 2 ने इसे आपराधिक रंग दे दिया।”
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि दीवानी मुकदमे के निष्कर्ष पर यह साबित हो जाता है कि वसीयत या कोडिसिल जाली है, तो शिकायतकर्ता को उस समय उपयुक्त आपराधिक कार्यवाही करने की स्वतंत्रता रहेगी।
इस प्रकार, रितिका जैन और अन्य के खिलाफ दर्ज एफआईआर और उससे संबंधित सभी कार्यवाहियों को समाप्त कर दिया गया।
इस फैसले के साथ, जम्मू पीठ ने यह सिद्धांत दोहराया कि परिवारिक उत्तराधिकार विवादों में आपराधिक कानून का उपयोग दबाव या समझौते के औजार के रूप में नहीं किया जा सकता।
Case Title: Ritika Jain and Another vs Union Territory of J&K and Another
Case Type & Number: CRM(M) No. 197 of 2023