सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार (8 अक्टूबर 2025) को एक सख्त हस्तक्षेप करते हुए राजस्थान हाईकोर्ट का वह आदेश रद्द कर दिया जिसमें भिलवाड़ा के ग्रेनाइट खनन से जुड़े मामले की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को सौंप दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि हाईकोर्ट ने “अपनी अधिकार-सीमा लांघी” और “क्लेरिकल गलती सुधारने के बहाने अपने ही आदेश की समीक्षा” कर डाली।
पृष्ठभूमि
मामला व्यापारी पारमेश्वर रामलाल जोशी द्वारा दर्ज की गई कई शिकायतों से शुरू हुआ, जो राजस्थान के भिलवाड़ा जिले में ग्रेनाइट खनन का व्यवसाय चलाते हैं। जोशी ने तत्कालीन राजस्व मंत्री रामलाल जाट और अन्य पर धमकी, वसूली और खनन उपकरण चोरी के आरोप लगाए। उनका कहना था कि कई शिकायतों के बावजूद स्थानीय पुलिस ने राजनीतिक दबाव में निष्पक्ष कार्रवाई नहीं की।
भिलवाड़ा पुलिस की ओर से “निगेटिव रिपोर्ट” दाखिल किए जाने के बाद जोशी ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के तहत और आवेदन दाखिल किए, जिनसे दो नए एफआईआर दर्ज हुए। लेकिन जब पुलिस जांच से वे असंतुष्ट रहे, तो उन्होंने राजस्थान हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और जांच को CBI को सौंपने की मांग की।
शुरुआत में हाईकोर्ट ने जोशी को केवल यह अनुमति दी कि वे पुलिस अधीक्षक को एक प्रस्तुति दें और निष्पक्ष जांच की अपेक्षा रखें। लेकिन कुछ ही दिनों बाद, अदालत ने अपने ही आदेश को यह कहते हुए वापस ले लिया कि उसमें “अनजाने में क्लेरिकल गलती” हो गई थी, और फिर जांच CBI को सौंप दी - इसी आदेश को राजस्थान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
अदालत की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की खंडपीठ ने हाईकोर्ट की कार्यवाही पर कड़ी टिप्पणी की। पीठ ने कहा, “हाईकोर्ट के पहले आदेश में न तो कोई क्लेरिकल गलती थी और न ही कोई अनजाना त्रुटि। बाद में जो किया गया, वह दरअसल समीक्षा थी, जो धारा 528 BNSS (पूर्व में धारा 482 CrPC) के तहत संभव नहीं है।”
जजों ने याद दिलाया कि आपराधिक न्यायालय अपने ही निर्णयों की समीक्षा या पुनर्विचार नहीं कर सकते, सिवाय टाइपिंग या क्लेरिकल त्रुटियों को सुधारने के। अदालत ने सिमरिखिया बनाम डॉली मुखर्जी (1990) के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि निहित शक्तियों (inherent powers) का उपयोग उस कार्य के लिए नहीं किया जा सकता जिसे कानून स्पष्ट रूप से निषिद्ध करता है।
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि जोशी ने इससे पहले समान याचिका दायर कर वापस ले ली थी। “जब समान प्रार्थनाओं वाली रिट याचिका बिना पुनः दाखिल करने की अनुमति के वापस ले ली जाती है, तो वही राहत किसी अन्य नाम से फिर से नहीं मांगी जा सकती,” पीठ ने कहा।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि हाईकोर्ट के 24 जनवरी 2025 और 4 फरवरी 2025 के आदेश “स्पष्ट रूप से अवैध और अधिकार क्षेत्र से बाहर” थे और उन्हें पूरी तरह रद्द कर दिया।
हालांकि, सर्वोच्च अदालत ने आरोपों की गंभीरता को देखते हुए शिकायतकर्ता को यह स्वतंत्रता दी कि वह कानूनी प्रक्रिया के अनुसार पूर्ववर्ती आदेशों को चुनौती दे सकता है।
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राजस्थान सरकार की अपीलें इस प्रकार स्वीकार कर ली गईं, जबकि संबंधित विशेष अनुमति याचिकाएँ निरर्थक हो जाने के कारण खारिज कर दी गईं।
इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने एक बुनियादी सिद्धांत को दोहराया - कोई भी अदालत बिना स्पष्ट कानूनी अधिकार के अपने ही आपराधिक आदेश की समीक्षा नहीं कर सकती। यह याद दिलाने वाला निर्णय है कि न्याय का आधार केवल सच्चाई ही नहीं, बल्कि प्रक्रिया का अनुशासन भी है।
Case Title: State of Rajasthan vs Parmeshwar Ramlal Joshi & Others
Judgment Date: October 8, 2025