राजस्थान उच्च न्यायालय की जोधपुर पीठ ने हाल ही में एक व्यक्ति द्वारा दायर की गई बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने अपनी लिव-इन साथी की रिहाई की मांग की थी, जो कि कानूनी रूप से किसी अन्य व्यक्ति से विवाहित थी और उसके ही सगी बहन पाई गई। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि भारतीय संविधान के तहत इस प्रकार के संबंधों का कोई कानूनी अधिकार नहीं है, विशेष रूप से ऐसे हालात में।
न्यायमूर्ति श्री चंद्रशेखर और न्यायमूर्ति मदन गोपाल व्यास की खंडपीठ ने जोर दिया कि भारतीय संविधान उन संबंधों का समर्थन नहीं करता जो सामाजिक नैतिकता और कानूनी सिद्धांतों के विरुद्ध हों। अदालत ने याचिकाकर्ता पर ₹10,000 का जुर्माना भी लगाया।
"भारतीय संविधान किसी अनैतिक कार्य को मान्यता नहीं देता। एक रिट अदालत उन मामलों में अपनी असाधारण विवेकाधिकार शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती, जो समाज में अनैतिकता को बढ़ावा दें।"
अदालत ने यह दोहराया कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका अवैध हिरासत को रोकने का एक महत्वपूर्ण कानूनी उपाय है, लेकिन इस प्रकार की याचिका को तब स्वीकार नहीं किया जा सकता जब यह किसी ऐसे संबंध को वैध ठहराने का प्रयास करे जो कानूनी और नैतिक रूप से अस्वीकार्य हो।
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अदालत ने लोकस स्टैंडी (कानूनी रूप से किसी मामले को दायर करने का अधिकार) की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा की। उसने कहा कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं में लोकस स्टैंडी को आम तौर पर लचीला माना जाता है, लेकिन किसी व्यक्ति द्वारा अपनी विवाहित बहन के साथ लिव-इन संबंध का दावा करने पर उसे कानूनी मान्यता नहीं दी जा सकती।
"किसी व्यक्ति का किसी विवाहित महिला के साथ लिव-इन संबंध रखने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है, विशेष रूप से जब वह उसकी अपनी सगी बहन हो।"
अदालत ने इस कथित लिव-इन संबंध को "शुरू से ही अमान्य" (Void ab initio) करार दिया। न्यायालय ने भारतीय अनुबंध अधिनियम की धारा 23 का हवाला दिया, जिसके तहत कोई भी ऐसा समझौता जो सार्वजनिक नीति के विरुद्ध हो या जिसमें अनैतिक विचारधारा शामिल हो, वह कानूनन मान्य नहीं होता।
"याचिकाकर्ता और विवाहित महिला के बीच कथित लिव-इन संबंध की कोई कानूनी मान्यता नहीं है और इसे प्रारंभ से ही अमान्य माना जाना चाहिए।"
याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया कि नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार संवैधानिक नैतिकता को सामाजिक नैतिकता से ऊपर रखा जाना चाहिए। हालांकि, राजस्थान उच्च न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि नवतेज जौहर मामले में किए गए अवलोकन एक अलग संदर्भ में थे और इस मामले में लागू नहीं होते।
"शायद व्यभिचार का अपराध महिलाओं पर लागू नहीं होता, लेकिन उच्च न्यायालयों को दी गई उच्चाधिकार प्राप्त रिट शक्तियों का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा यदि यह अदालत इस आधार पर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका स्वीकार करे कि याचिकाकर्ता, एक विवाहित महिला के साथ लिव-इन संबंध में रहकर कोई अपराध नहीं कर रहा है।"
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मामले की पृष्ठभूमि और अदालत का निर्णय
याचिकाकर्ता ने यह आरोप लगाते हुए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी कि महिला को उसके ससुराल वालों द्वारा शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा था। हालांकि, जांच में यह सामने आया कि याचिकाकर्ता स्वयं उस महिला का सगा भाई था और उसके साथ लिव-इन संबंध में रह रहा था।
याचिकाकर्ता ने लीला बनाम राजस्थान राज्य और देवु जी नायर बनाम केरल राज्य मामलों का हवाला देकर यह तर्क दिया कि सामाजिक नैतिकता को व्यक्तिगत संबंधों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। लेकिन अदालत ने इन मामलों को संदर्भ से बाहर बताया और कहा कि दोनों मामलों की परिस्थितियाँ अलग थीं।
"यह मामला केवल दो वयस्कों के बीच एक सामान्य लिव-इन संबंध का नहीं है, बल्कि सगे भाई और बहन के बीच इस प्रकार के संबंध का है, जो कानूनी और सामाजिक रूप से अस्वीकार्य है।"
अंतिम निर्णय और दंड
मामले की गंभीरता को देखते हुए, राजस्थान उच्च न्यायालय ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया और याचिकाकर्ता पर ₹10,000 का जुर्माना लगाया, जिसे चार सप्ताह के भीतर जोधपुर के सरकारी दृष्टिहीन विद्यालय में जमा कराने का निर्देश दिया।
अदालत ने यह भी चेतावनी दी कि यदि याचिकाकर्ता इस आदेश का पालन नहीं करता, तो उसके खिलाफ स्वतः संज्ञान लेकर अवमानना की कार्यवाही शुरू की जाएगी।
"इस याचिका में प्रस्तुत तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, वर्तमान बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका संख्या 467/2024 को ₹10,000 के जुर्माने के साथ खारिज किया जाता है। यह राशि चार सप्ताह के भीतर जोधपुर स्थित सरकारी दृष्टिहीन विद्यालय में जमा करनी होगी, अन्यथा न्यायालय स्वतः संज्ञान लेकर अवमानना मामला दर्ज करेगा।"
मामले का शीर्षक: जीआर बनाम राजस्थान राज्य