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सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी साक्ष्य के अभाव में नारायण यादव को हत्या के मामले में बरी किया

Shivam Y.

सुप्रीम कोर्ट ने 2019 के हत्या मामले में नारायण यादव को बरी किया, यह निर्णय दिया कि उसकी स्वीकारोक्ति वाली एफआईआर सबूत के रूप में स्वीकार्य नहीं है और चिकित्सा राय अकेले दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी साक्ष्य के अभाव में नारायण यादव को हत्या के मामले में बरी किया

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने नारायण यादव को हत्या के एक मामले में बरी कर दिया है, यह कहते हुए कि उनकी दोषसिद्धि अस्वीकार्य साक्ष्यों पर आधारित थी। यह मामला 2019 में राम बाबू शर्मा की हत्या से संबंधित है, जिसमें छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने पहले हत्या (IPC की धारा 302) के आरोप को घटाकर गैर इरादतन हत्या (IPC की धारा 304 भाग I) कर दिया था। हालांकि, शीर्ष अदालत ने माना कि कोई भी वैध कानूनी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिससे दोषसिद्धि को उचित ठहराया जा सके।

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मामले की पृष्ठभूमि

27 सितंबर 2019 को, नारायण यादव ने कोरबा पुलिस स्टेशन में एक एफआईआर दर्ज कराई, जिसमें उसने कबूल किया कि उसने शराब पीने के बाद हुई बहस के दौरान राम बाबू शर्मा की हत्या कर दी। उसने दावा किया कि मृतक ने उसकी प्रेमिका के बारे में अभद्र टिप्पणी की थी, जिससे नारायण को गुस्सा आया और उसने चाकू व लकड़ी के लठ्ठ से हमला किया। इसके बाद वह घटनास्थल से फरार हो गया।

यह स्वीकारोक्ति अभियोजन पक्ष के केस का मुख्य आधार बन गई। ट्रायल कोर्ट ने IPC की धारा 302 के तहत उसे आजीवन कारावास की सजा दी थी। बाद में, हाईकोर्ट ने IPC की धारा 304 भाग I के तहत सजा कम कर दी थी।

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सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ द्वारा दिए गए निर्णय में कहा:

"एक आरोपी द्वारा पुलिस के समक्ष दी गई स्वीकारोक्ति वाली एफआईआर भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 25 के अंतर्गत अस्वीकार्य है।"

अदालत ने स्पष्ट किया कि जब तक किसी आरोपी द्वारा दी गई जानकारी से कोई तथ्य की खोज न हो (धारा 27), तब तक ऐसी स्वीकारोक्ति सबूत के रूप में मान्य नहीं होती।

इसके अतिरिक्त, अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर सका कि आरोपी की किसी जानकारी से कोई कानूनी रूप से अनुमेय खोज हुई। पंच गवाहों ने अपना बयान बदल दिया और पुलिस ने भी पंचनामा कानूनी रूप से प्रमाणित नहीं किया।

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मेडिकल ऑफिसर डॉ. आर.के. दिव्या ने कहा कि मौत का कारण चाकू के घावों से हुआ रक्तस्राव था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया:

"चिकित्सीय विशेषज्ञ की गवाही केवल सलाहात्मक होती है, और जब तक अन्य अनुमेय सबूत से समर्थन न हो, तब तक दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकती।"

अदालत ने यह भी कहा कि डॉक्टर केवल चोटों की प्रकृति बता सकते हैं, लेकिन आरोपी की पहचान सिद्ध नहीं कर सकते।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हाई कोर्ट ने IPC की धारा 300 के अपवाद 4 का गलत तरीके से उपयोग किया, जो अचानक झगड़े में बिना पूर्व नियोजन के हुई हत्या से संबंधित है। उपलब्ध साक्ष्यों से यह साबित नहीं होता कि मृतक ने कोई उत्तेजक कार्य किया जिससे ऐसी लड़ाई हुई।

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"हमला एकतरफा और क्रूर था। मृतक निहत्था था और उस पर बेरहमी से वार किए गए थे।"

अदालत ने कहा कि अगर कोई अपवाद लागू होता, तो वह अपवाद 1 (गंभीर और अचानक उत्तेजना) होता, हालांकि वह भी इस केस पर लागू नहीं होता क्योंकि कोई वैध समर्थन नहीं था।

सुप्रीम कोर्ट ने पूरी दोषसिद्धि रद्द करते हुए कहा:

“इस मामले में कोई वैध कानूनी सबूत नहीं है। आरोपी बरी होने का हकदार है।”

नारायण यादव को सभी आरोपों से बरी किया गया और तत्काल रिहा करने का आदेश दिया गया, यदि वह किसी अन्य मामले में वांछित नहीं है।

केस का शीर्षक: नारायण यादव बनाम छत्तीसगढ़ राज्य

केस संख्या: आपराधिक अपील संख्या 3343/2025

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