सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसले में स्पष्ट किया कि ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2014) में दिए गए निर्णय का अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करना अनिवार्य है। यह निर्णय तब आया जब कोर्ट गुजरात के पूर्व आईएएस अधिकारी प्रदीप निरंकारनाथ शर्मा की याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिन्होंने भूमि आवंटन में भ्रष्टाचार से संबंधित कई एफआईआर को चुनौती दी थी।
मामले की पृष्ठभूमि
प्रदीप निरंकारनाथ शर्मा, जो एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं, विभिन्न प्रशासनिक पदों पर कार्यरत रहे, जिनमें 2003 से 2006 तक गुजरात के कच्छ जिले के कलेक्टर के रूप में सेवा शामिल है। उनके खिलाफ कई एफआईआर दर्ज की गईं, जिनमें सरकारी भूमि आवंटन में अनियमितताओं और भ्रष्ट आचरण के आरोप लगे।
लगातार एफआईआर दर्ज किए जाने से परेशान होकर, शर्मा ने गुजरात उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और अनुरोध किया कि उनके खिलाफ आगे कोई भी एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच की जाए। उन्होंने तर्क दिया कि इस तरह की जांच की अनुपस्थिति उनके मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उनकी स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। हालांकि, उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
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न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति पीबी वराले की खंडपीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा और यह स्पष्ट किया कि ललिता कुमारी मामले का फैसला सभी मामलों में प्रारंभिक जांच को अनिवार्य नहीं बनाता।
"यदि कोई जानकारी संज्ञेय अपराध को स्पष्ट रूप से इंगित करती है, तो भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 154 के तहत एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है। प्रारंभिक जांच की गुंजाइश केवल उन्हीं मामलों में सीमित है, जहाँ यह स्पष्ट नहीं होता कि अपराध संज्ञेय है या नहीं।"
कोर्ट ने आगे कहा कि जब किसी मामले में भ्रष्टाचार और सरकारी पद के दुरुपयोग के आरोप सीधे संज्ञेय अपराध से संबंधित होते हैं, तो पुलिस को एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करने का कोई विवेकाधिकार नहीं होता।
सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमारी के फैसले से प्रमुख बिंदुओं को दोहराते हुए कहा:
"प्रारंभिक जांच केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में आवश्यक होती है, जैसे कि पारिवारिक विवाद, व्यावसायिक मामले, या चिकित्सीय लापरवाही से संबंधित शिकायतें। हालांकि, जब भ्रष्टाचार या सरकारी शक्ति के दुरुपयोग के स्पष्ट आरोप होते हैं, तो पुलिस को एफआईआर दर्ज करना ही होगा।"
कोर्ट ने शर्मा की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से दर्ज की गई थीं। कोर्ट ने कहा कि ऐसी चिंताओं को जांच और सुनवाई के दौरान संबोधित किया जाना चाहिए।
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शर्मा ने तर्क दिया कि उनके खिलाफ बार-बार एफआईआर दर्ज की जा रही हैं, खासकर जब वह पिछले मामलों में जमानत प्राप्त कर लेते हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को अस्वीकार करते हुए कहा:
"यह न्यायालय यह आदेश जारी नहीं कर सकता कि याचिकाकर्ता के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने पर पूरी तरह से रोक लगा दी जाए या प्रत्येक मामले में एफआईआर से पहले प्रारंभिक जांच अनिवार्य कर दी जाए। ऐसा करना न्यायिक अतिक्रमण होगा और यह सीआरपीसी के वैधानिक प्रावधानों के विपरीत होगा।"
कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि किसी व्यक्ति को लगता है कि उसके खिलाफ दुर्भावनापूर्ण इरादे से एफआईआर दर्ज की जा रही है, तो उसके पास कानून में उपलब्ध विभिन्न उपाय हैं, जैसे कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत निराधार एफआईआर को रद्द कराने की याचिका दायर करना, जमानत के लिए आवेदन करना, या जांच को चुनौती देना।
इस मामले में याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल पेश हुए, जबकि राज्य सरकार की ओर से भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलीलें दीं।
मामले का विवरण: प्रदीप निरंकारनाथ शर्मा बनाम गुजरात राज्य और अन्य।