मंगलवार को एक संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण सुनवाई में, सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एम.एम. सुंदरश और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने हस्तक्षेप करते हुए एक ऐसे आदेश को ठीक किया जिसे वह एक ऐसे आरोपी पर अनावश्यक बोझ मान रही थी जिसने अपना चेक-बाउंस विवाद पहले ही सुलझा लिया था। अदालत में माहौल शांत और लगभग नियमित था, लेकिन पीठ की टिप्पणियों में उन हजारों मामलों के लिए स्पष्ट संकेत थे जो धारा 138 एनआई अधिनियम के तहत पुनरीक्षण स्तर पर समझौते से हल होते हैं।
यह अपील राजीव खंडेलवाल द्वारा दायर की गई थी, जिन्हें विनिमय योग्य लिखत अधिनियम (Negotiable Instruments Act) के तहत दोषी ठहराया गया था, लेकिन बाद में शिकायतकर्ता के साथ सौहार्दपूर्ण समझौते पर पहुँचे। समझौते के बावजूद, बॉम्बे हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के दामोदर एस. प्रभु बनाम सैयद बाबालाल एच. फैसले का हवाला देते हुए उन्हें राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को “लागत” (cost) जमा करने का निर्देश दिया था।
पृष्ठभूमि
खंडेलवाल का मामला एक सामान्य यात्रा जैसा ही था। चेक अनादरण पर दोषसिद्धि के बाद, उनकी अपील सेशन कोर्ट में खारिज हो गई। इसके बाद उन्होंने हाई कोर्ट में पुनरीक्षण दायर किया। इसी दौरान, उन्होंने और शिकायतकर्ता ने मिलकर मुद्दे को सौहार्दपूर्वक सुलझा लिया कुछ ऐसा जिसे अदालतें चेक-बाउंस मामलों के भारी बोझ को देखते हुए प्रोत्साहित करती हैं।
हाई कोर्ट ने समझौते को स्वीकार करते हुए उन्हें बरी कर दिया, लेकिन एक अतिरिक्त शर्त जोड़ दी: दामोदर एस. प्रभु के फार्मूले के अनुसार राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को लागत का भुगतान। यह फार्मूला आमतौर पर समझौते के चरण के अनुसार अलग-अलग लागत निर्धारित करता है।
हालाँकि, अपीलकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि यह लागत केवल आर्थिक रूप से कठिन ही नहीं, बल्कि कानूनी रूप से भी संदिग्ध है, खासकर जब शिकायतकर्ता को एक रुपये भी अतिरिक्त नहीं चाहिए।
कोर्ट की टिप्पणियाँ
मामले पर सुनवाई शुरू होते ही, अपीलकर्ता के वरिष्ठ वकील ने तर्क दिया कि दामोदर एस. प्रभु फैसला संविधान के अनुच्छेद 142 पर आधारित था, जो सुप्रीम कोर्ट को किसी भी मामले में “पूर्ण न्याय” करने के लिए विशेष अधिकार देता है। उन्होंने कहा कि ऐसा निर्णय स्वचालित रूप से सभी अदालतों के लिए बाध्यकारी कानूनी आदेश नहीं बन सकता।
जस्टिस सुंदरश इस तर्क से सहमत दिखे। उन्होंने कहा कि पुनरीक्षण स्तर पर समझौते को इस तरह के अतिरिक्त वित्तीय दायित्व से हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। एक मौके पर पीठ ने कहा,
“पीठ ने टिप्पणी की, ‘हर मामले को उसके अपने तथ्यों पर देखा जाना चाहिए। शिकायतकर्ता को कोई अतिरिक्त राशि नहीं चाहिए और अपीलकर्ता वास्तविक असमर्थता व्यक्त कर रहा है। ऐसे में लागत लगाना उचित नहीं।’”
न्यायाधीशों ने राज्य और शिकायतकर्ता के वकीलों से यह भी पूछा कि क्या वे राहत देने का विरोध करते हैं। दोनों पक्षों ने स्पष्ट रूप से कहा कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं जो चेक-बाउंस विवादों में दुर्लभ है।
एक और महत्वपूर्ण टिप्पणी में कोर्ट ने कहा कि पहले का निर्णय कठोर नियम-पुस्तिका जैसा नहीं माना जा सकता।
“पीठ ने कहा, ‘यह कानून सभी स्थितियों में बाध्यकारी नहीं माना जा सकता, खासकर जब समझौता पूर्ण और निर्विवाद हो।’”
निर्णय
अपने संक्षिप्त आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि हाई कोर्ट द्वारा राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को लागत जमा करने का निर्देश इस मामले की परिस्थितियों में टिकाऊ नहीं है। इसलिए कोर्ट ने लागत संबंधी शर्त को रद्द कर दिया और अपील निपटा दी।
इसके अलावा कोई और निर्देश नहीं दिया गया और मामला वहीं समाप्त हो गया।
Case Title: Rajeev Khandelwal vs. State of Maharashtra & Anr.
Case Type: SLP (Crl.) No. 14340/2025










