नई दिल्ली, 13 नवम्बर - सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति राजेश बिंदल और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने गुरुवार को राजस्थान हाई कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें एक ग्रामीण डाक सेवक को पुनः सेवा में बहाल किया गया था, जिस पर ग्रामीण जमाकर्ताओं के धन के दुरुपयोग का आरोप था। कोर्ट नंबर 6 में माहौल शांत लेकिन थोड़ा तनावपूर्ण था, क्योंकि दोनों पक्षों ने वही तर्क दोहराए जो विभागीय जांच, केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण और हाई कोर्ट तक पहुंच चुके थे।
पृष्ठभूमि
मामला 2011 में जोधपुर जिले के एक छोटे डाकघर में हुई निरीक्षण प्रक्रिया से जुड़ा है। इंद्राज, जो 1998 से ग्रामीण डाक सेवक/शाखा डाकपाल के पद पर कार्यरत थे, पर आरोप था कि वे आवर्ती जमा (आरडी) किश्तें और जीवन बीमा प्रीमियम गांव वालों से लेते थे, उनके पासबुक पर मुहर भी लगाते थे, लेकिन सरकारी खातों में इन लेनदेन की प्रविष्टि नहीं करते थे।
सुनवाई के दौरान पीठ ने रिकॉर्ड को संक्षेप में देखा। रकम शायद छोटी लग सकती है आरडी में ₹1,900 और बीमा प्रीमियम में ₹3,366 लेकिन जैसा कि एक सरकारी वकील ने गलियारे में धीमे से कहा, “गांव के डाकघर में भरोसा ही सब कुछ होता है।”
2013 में चार्जशीट जारी हुई। विभागीय जांच में आरोप साबित पाए गए और दिसंबर 2014 में इंद्राज को सेवा से हटा दिया गया। विभागीय अपील और बाद में अधिकरण में भी उन्हें कोई राहत नहीं मिली।
लेकिन 2024 में राजस्थान हाई कोर्ट ने उन्हें बहाल कर दिया, यह कहते हुए कि मामला “संदेह से रहित नहीं” है और यह भी कि अपराध स्वीकारोक्ति संभवतः निरीक्षक के दबाव में हुई हो सकती है।
कोर्ट की टिप्पणियाँ
कोर्ट कक्ष में सुप्रीम कोर्ट की पीठ हाई कोर्ट की दलीलों से बहुत आश्वस्त नहीं दिखी। न्यायमूर्ति बिंदल ने जांच रिकॉर्ड का उल्लेख करते हुए एक बिंदु पर कहा,
“पीठ ने कहा, ‘जब कोई व्यक्ति आरोप स्वीकार करता है, रकम जमा करता है और जांच प्रक्रिया को चुनौती भी नहीं देता, तो मेरिट की पुनः समीक्षा न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे से बाहर है।’”
पीठ ने कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान दिया:
- इंद्राज ने गवाहों का जिरह किया लेकिन कोई बचाव साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया।
- उन्होंने 2012 के बयान में स्वीकार किया था कि जमा की गई रकम उन्होंने घरेलू खर्चों के लिए इस्तेमाल की।
- विसंगति सामने आने के बाद ही उन्होंने गायब रकम जमा की।
न्यायालय ने यह भी कहा कि हाई कोर्ट ने मामले को ऐसे परखा मानो यह एक आपराधिक मुकदमा हो, जबकि यह केवल सेवा-आचरण दंड की कार्यवाही थी। न्यायमूर्ति मनमोहन ने बहस के दौरान कहा,
“न्यायिक पुनरावलोकन हर तथ्य की दोबारा जांच करने का मंच नहीं है।”
पीठ ने विशेष रूप से यह रेखांकित किया कि पासबुक पर मुहर लगाकर सरकारी खातों में प्रविष्टि न करना कोई “साधारण त्रुटि” नहीं बल्कि भरोसे का गंभीर उल्लंघन है, खासकर ग्रामीण बैंकिंग में जहाँ जमाकर्ता पूरी तरह पासबुक पर निर्भर रहते हैं।
निर्णय
दोनों न्यायाधीशों ने संक्षिप्त विचार-विमर्श के बाद आदेश उच्चारित किया:
- सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार की अपील स्वीकार की।
- हाई कोर्ट का पुनर्बहाली आदेश रद्द किया गया।
- सेवा से हटाने की मूल सज़ा बहाल की गई।
न्यायालय ने सख्ती से कहा कि हाई कोर्ट ने “अपने अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़कर” गलत तरीके से तथ्यों का पुनर्मूल्यांकन किया, जबकि स्वयं कर्मचारी की स्वीकारोक्ति और रकम जमा करने जैसी बातें रिकॉर्ड में स्पष्ट थीं।
इसी के साथ मामला समाप्त हुआ - विभागीय हटाने का आदेश अब पूरी तरह बहाल कर दिया गया है।
Case Title:- Union of India & Ors. vs. Indra
Case Number:- Civil Appeal No. 13183 of 2025









