सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को उस सवाल पर स्पष्टता दी, जिसने दो दशकों से अधिक समय तक कर अधिकारियों और उद्योग जगत दोनों को उलझन में रखा था-नॉन-कम्पीट फीस को आयकर कानून के तहत कैसे देखा जाए? शार्प बिज़नेस सिस्टम और अन्य कंपनियों से जुड़ी सिविल अपीलों के एक समूह की सुनवाई करते हुए, पीठ ने यह परखा कि ऐसे भुगतान राजस्व व्यय हैं या पूंजीगत परिसंपत्तियाँ, और इस वर्गीकरण के क्या कानूनी परिणाम होंगे।
पृष्ठभूमि
मुख्य मामला शार्प बिज़नेस सिस्टम द्वारा आकलन वर्ष 2001–02 में लार्सन एंड टूब्रो को दिए गए ₹3 करोड़ के भुगतान से जुड़ा था। यह राशि एक नॉन-कम्पीट समझौते के तहत दी गई थी, जिसमें एलएंडटी को सात वर्षों तक इलेक्ट्रॉनिक ऑफिस प्रोडक्ट्स के बाज़ार में प्रवेश से रोका गया था। कंपनी ने इस राशि को व्यवसायिक खर्च के रूप में कटौती योग्य बताया, लेकिन कर विभाग ने इसे पूंजीगत व्यय मानते हुए अस्वीकार कर दिया। इसी तरह के विवाद मद्रास, बॉम्बे और अन्य उच्च न्यायालयों से भी सामने आए, जिनमें कहीं अधिक बड़ी नॉन-कम्पीट राशियाँ शामिल थीं। इन मामलों को एक साथ सुनते हुए अदालत के सामने देशभर में अलग-अलग न्यायिक दृष्टिकोण उभरकर आए।
अदालत की टिप्पणियाँ
पीठ की ओर से फैसला लिखते हुए न्यायमूर्ति उज्जल भुइयाँ ने कहा कि असली कसौटी नामकरण नहीं, बल्कि भुगतान का व्यावसायिक प्रभाव है। अदालत ने कहा कि नॉन-कम्पीट फीस का भुगतान प्रतिस्पर्धा को दूर रखकर लंबे समय तक लाभ प्राप्त करने के लिए किया जाता है। पीठ ने टिप्पणी की, “ऐसा लाभ रोज़मर्रा के व्यापारिक संचालन से आगे जाकर व्यवसाय की संरचना को मज़बूत करता है।”
साथ ही, अदालत ने यह भी गहराई से देखा कि क्या यह लाभ डेप्रिसिएशन के लिए योग्य एक अमूर्त संपत्ति (इंटैन्जिबल एसेट) है। अदालत ने यह तर्क खारिज कर दिया कि केवल पेटेंट या ट्रेडमार्क जैसे “सकारात्मक अधिकार” ही डेप्रिसिएशन के पात्र होते हैं। पीठ ने कहा कि आयकर अधिनियम में प्रयुक्त शब्दावली-“समान प्रकृति के अन्य व्यावसायिक या वाणिज्यिक अधिकार”-काफी व्यापक है और इसमें प्रतिबंधात्मक शर्तों से उत्पन्न अधिकारों को बाहर नहीं किया गया है। सरल शब्दों में, किसी को प्रतिस्पर्धा से रोकने वाला अधिकार भी वास्तविक व्यावसायिक मूल्य रखता है।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि नॉन-कम्पीट फीस पूंजीगत व्यय है, न कि साधारण व्यापारिक खर्च। हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे भुगतान से एक अमूर्त संपत्ति का सृजन होता है, जिस पर आयकर अधिनियम की धारा 32(1)(ii) के तहत डेप्रिसिएशन का लाभ मिल सकता है। इस तरह, अदालत ने शार्प बिज़नेस सिस्टम के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा अपनाए गए संकुचित दृष्टिकोण को खारिज किया और अन्य उच्च न्यायालयों के उदार रुख की पुष्टि की। सभी अपीलों का इसी आधार पर निपटारा कर दिया गया, जिससे नॉन-कम्पीट समझौतों के कर उपचार को लेकर लंबे समय से चली आ रही अनिश्चितता समाप्त हो गई।
Case Title: Sharp Business System (Through Finance Director Mr. Yoshihisa Mizuno) vs Commissioner of Income Tax–III
Case No.: Civil Appeal No. 4072 of 2014 (along with connected Civil Appeals Nos. 15048–15051 of 2025)
Case Type: Civil Appeal (Income Tax – Non-Compete Fee & Depreciation)
Decision Date: 2025