लखनऊ, 16 अक्टूबर - इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने गुरुवार को ईस्ट सेंट्रल रेलवे के चीफ लोको इंस्पेक्टर (सीएलआई) परीक्षा पेपर लीक केस में आरोपित कई रेलवे अधिकारियों को जमानत दे दी। अदालत ने कहा कि अभियुक्तों को लगातार जेल में रखना उनके त्वरित न्याय के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा। न्यायमूर्ति सुभाष विद्यर्थी ने आठ अभियुक्तों - जिनमें सुशांत प्रशर उर्फ सुशांत पराशर, नीरज कुमार वर्मा, और सुरजीत सिंह शामिल हैं - की जुड़ी हुई जमानत अर्जी पर विस्तृत सुनवाई के बाद यह आदेश सुनाया।
यह मामला सीबीआई की जांच से जुड़ा है जिसमें रेलवे अधिकारियों, बिचौलियों और उम्मीदवारों का एक बड़ा नेटवर्क कथित रूप से शामिल पाया गया था। यह नेटवर्क दीन दयाल उपाध्याय (डीडीयू) डिविजन, उत्तर प्रदेश में हुई विभागीय परीक्षा में धांधली का हिस्सा बताया गया है।
पृष्ठभूमि
केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) के अनुसार, अभियुक्त अधिकारियों ने चीफ लोको इंस्पेक्टर (सीएलआई) की विभागीय परीक्षा, जो 4 मार्च 2025 को होनी थी, का प्रश्नपत्र लीक करने की साजिश रची थी। इसके बदले में उम्मीदवारों से भारी रिश्वत ली गई।
सीबीआई का कहना है कि छापेमारी के दौरान ₹1.14 करोड़ नकद, हाथ से लिखे हुए प्रश्नपत्र, और कई दस्तावेज बरामद हुए जो अधिकारियों और उम्मीदवारों के बीच रिश्वतखोरी के जाल की ओर इशारा करते हैं।
मुख्य अभियुक्तों में से एक, सुशांत प्रशर, जो प्रश्नपत्र तैयार करने के लिए जिम्मेदार थे, ने कथित रूप से परीक्षा का अंग्रेज़ी प्रश्नपत्र अपने अधीनस्थ आनिश कुमार को सौंपा था। आनिश ने आगे वह प्रश्नपत्र नीरज कुमार वर्मा को उम्मीदवारों में बाँटने के लिए दिया। सीबीआई का दावा है कि कई उम्मीदवार परीक्षा से एक दिन पहले “लीक किए गए प्रश्न याद करते हुए” पकड़े गए, जिनमें राज मैरिज लॉन और कर्मचारियों के आवास जैसी जगहें शामिल थीं।
रक्षा पक्ष ने दलील दी कि यह परीक्षा विभागीय आंतरिक परीक्षा थी, न कि कोई “सार्वजनिक परीक्षा”, इसलिए यह लोक परीक्षा (अवैध साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 के दायरे में नहीं आती। यह भी बताया गया कि 1,300 प्रश्नों का प्रश्न बैंक पहले से वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध था, जिससे अभ्यर्थी तैयारी कर रहे थे।
अदालत के अवलोकन
लंबी सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति विद्यर्थी ने 70 से अधिक गवाहों और हजारों पृष्ठों वाली चार्जशीट का अध्ययन किया और कहा कि इस मामले का ट्रायल जल्दी खत्म होना संभव नहीं है।
अदालत ने टिप्पणी की, “राज्य किसी अभियुक्त को अनिश्चित काल तक जेल में नहीं रख सकता।”
अदालत ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले जावेद गुलाम नबी शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य (2024) का हवाला देते हुए कहा कि “लंबी हिरासत, दोष सिद्ध होने से पहले ही सज़ा जैसी बन जाती है।”
न्यायमूर्ति विद्यर्थी ने कहा,
“यदि अभियोजन स्वयं कह रहा है कि जांच पूरी हो चुकी है और अभियोजन की स्वीकृति अभी लंबित है, तो आगे हिरासत का कोई औचित्य नहीं बचता।”
अभियुक्तों के वकीलों ने कई प्रक्रियात्मक खामियों की ओर ध्यान दिलाया - जैसे भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की धारा 105 का पालन न होना, जिसमें तलाशी और ज़ब्ती की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग अनिवार्य है। रक्षा पक्ष ने यह भी कहा कि हैंडराइटिंग और वॉइस सैंपल की वैज्ञानिक पुष्टि नहीं हुई, और बरामद दस्तावेज़ों से अभियुक्तों को जोड़ने वाले साक्ष्य केवल परिस्थितिजन्य हैं।
न्यायमूर्ति विद्यर्थी ने कहा,
“निर्दोषता की धारणा हमारे आपराधिक न्याय प्रणाली का मूल सिद्धांत है। केवल आरोपों की गंभीरता के आधार पर जमानत नहीं रोकी जा सकती, खासकर जब मुकदमे की शुरुआत ही अनिश्चित हो।”
निर्णय
अदालत ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सुशांत प्रशर, सुरजीत सिंह, संजय कुमार मिश्रा, नीरज कुमार वर्मा, अजीत कुमार सिंह, राज नारायण सिंह यादव, राकेश कुमार, और रामायण सहित सभी अभियुक्तों को जमानत देने का निर्णय किया।
न्यायालय ने संजय चंद्र बनाम सीबीआई (2012) और सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम सीबीआई (2022) जैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि - “जमानत नियम है और जेल अपवाद।”
आदेश में कहा गया,
“अभियुक्त समाज में जड़ें रखने वाले लोग हैं, उनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है, जांच पूरी हो चुकी है - इसलिए उन्हें हिरासत में रखना उचित नहीं।” साथ ही, अदालत ने अभियुक्तों को निर्देश दिया कि वे ट्रायल में सहयोग करें, साक्ष्य से छेड़छाड़ न करें, और गवाहों से संपर्क न करें।
फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति विद्यर्थी ने टिप्पणी की,
“संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिली स्वतंत्रता को अपराध की गंभीरता के नाम पर कमजोर नहीं किया जा सकता। एक बार खोई हुई आज़ादी आसानी से लौटती नहीं।”
इस आदेश के साथ अदालत ने यह संकेत दिया कि, भले ही भर्ती परीक्षाओं में भ्रष्टाचार गंभीर अपराध है, लेकिन मुकदमे से पहले लंबी जेल हिरासत को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।
Case Title:- Sushant Prashar @ Sushant Parashar vs. Central Bureau of Investigation