एक महत्वपूर्ण निर्णय में बॉम्बे हाईकोर्ट ने गैंगरेप मामले में तीन दोषियों की सजा को बरकरार रखते हुए साफ कहा है कि किसी महिला के पूर्व यौन संबंध या उसका चरित्र उसकी सहमति को तय नहीं करता। अदालत ने कहा, एक महिला अगर 'ना' कहती है, तो उसका मतलब सिर्फ 'ना' होता है। इसमें कोई अस्पष्टता नहीं होती।
न्यायमूर्ति नितिन बी. सूर्यवंशी और न्यायमूर्ति एम.डब्ल्यू. चंदवानी की खंडपीठ ने मकसूद शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। यह मामला 5 नवंबर 2014 को महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में घटित एक वीभत्स गैंगरेप की घटना से जुड़ा है, जिसमें वसीम खान, कादिर शेख और एक किशोर ने मिलकर पीड़िता के साथ सामूहिक बलात्कार किया था।
पीड़िता अपने पति से अलग रह रही थी और एक किराए के कमरे में लिव-इन पार्टनर दिनेश के साथ रह रही थी। अभियोजन पक्ष के अनुसार, आरोपी पीड़िता के इस संबंध से नाराज़ थे और उन्होंने दिनेश और उनके दोस्त राकेश के साथ मारपीट की, उन्हें शराब पिलाई और पीड़िता तथा राकेश के अश्लील वीडियो बनाकर उन्हें धमकाया। इसके बाद, वे पीड़िता को जंगल में ले गए और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया।
निचली अदालत ने तीनों आरोपियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 376D (गैंगरेप) और 307 (हत्या की कोशिश) समेत अन्य धाराओं के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
हाईकोर्ट ने धारा 376D के तहत दोष सिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन वसीम और कादिर की सजा को कुछ हद तक कम करते हुए आजीवन कारावास को घटाकर 20 वर्षों का कठोर कारावास कर दिया। वहीं, धारा 307 के तहत उनकी सजा को 20 साल से घटाकर 10 साल कर दिया गया। अदालत ने यह फैसला पीड़िता को गंभीर चोट न लगने, वसीम की नाबालिग बेटी और जेल में अच्छे आचरण जैसे तथ्यों को ध्यान में रखते हुए दिया।
अदालत ने यह भी कहा, बलात्कार, खासकर सामूहिक बलात्कार, एक घिनौना अपराध है और यह समाज के कमजोर वर्ग यानी महिलाओं के खिलाफ होता है। ऐसे अपराधियों से कठोरता से निपटना जरूरी है।
वकील पक्ष ने पीड़िता के चरित्र पर सवाल उठाने की कोशिश की, यह कहते हुए कि वह अपने पति से तलाक लिए बिना दिनेश के साथ रह रही थी और पहले वसीम के साथ संबंधों में थी। इस पर अदालत ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा:
अगर पहले पीड़िता और आरोपी के बीच कोई संबंध था भी, तो भी कोई व्यक्ति उसकी इच्छा के विरुद्ध जबरन यौन संबंध नहीं बना सकता।
जजों ने स्पष्ट किया कि किसी समय दी गई सहमति का मतलब यह नहीं है कि भविष्य में हर बार भी वह सहमति बनी रहे। "कोई महिला अगर किसी समय किसी पुरुष के साथ सहमति से संबंध बनाती है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि आगे भी हर बार वह सहमति देती है।"
अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 53A का भी हवाला दिया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि किसी महिला के पिछले यौन व्यवहार को उसकी सहमति या विश्वसनीयता के आधार के रूप में नहीं देखा जा सकता। अदालत ने कहा, भूतकाल की कोई भी निकटता आरोपी को दंड से मुक्त नहीं कर सकती, यह केवल सजा तय करने में प्रासंगिक हो सकती है।
अदालत ने घटना का विस्तार से वर्णन करते हुए बताया कि कैसे आरोपियों ने पीड़िता और उसके साथियों को शराब पिलाई, रॉड और डंडों से पीटा, दिनेश को रेलवे ट्रैक पर धकेल कर जान से मारने की कोशिश की, और फिर पीड़िता को जंगल में ले जाकर बलात्कार किया। अगले दिन वे उसे वहीं छोड़कर भाग गए।
न्यायालय ने अपने निर्णय में बलात्कार को केवल यौन अपराध नहीं बल्कि महिला की देह, आत्मा और निजता पर हमला बताया। "बलात्कार समाज का सबसे घृणित अपराध है… यह एक महिला को वस्तु की तरह देखता है और उसकी पूरी जिंदगी को झकझोर देता है," अदालत ने कहा।
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अंत में अदालत ने यह भी कहा कि सहमति के मामलों में समाज को नैतिकता के चश्मे से देखना बंद करना चाहिए। किसी महिला की तथाकथित 'अनैतिक गतिविधियों' के आधार पर उसकी सहमति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
इस फैसले के जरिए बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट संदेश दिया है कि महिलाओं की गरिमा और निजता को उनके अतीत से नहीं आँका जा सकता और हर महिला की 'ना' का पूरा सम्मान किया जाना चाहिए।