एक महत्वपूर्ण फैसले में, कलकत्ता हाईकोर्ट ने सहजाहान शेख और एक अन्य की उस अपील को खारिज कर दिया जिसमें 2019 में नज़ात थाना क्षेत्र में हुई चुनाव बाद की हिंसा के मामले की जांच सीबीआई से कराए जाने के एकल पीठ के आदेश को चुनौती दी गई थी। यह निर्णय 4 अगस्त 2025 को न्यायमूर्ति देबांगसु बसाक और न्यायमूर्ति प्रसनजीत बिस्वास की खंडपीठ ने MAT 1054 ऑफ 2025 (संबंधित आवेदनों CAN 1 और CAN 2 ऑफ 2025 सहित) में सुनाया।
अपीलकर्ता नज़ात थाना कांड संख्या 142/2019 में अभियुक्त हैं। उन्होंने एकल पीठ के उस आदेश के खिलाफ अपील की अनुमति मांगी थी जो 30 जून 2022 को WPA 702 ऑफ 2024 में पारित किया गया था, जिसमें सीबीआई को मामले की जांच सौंपने का निर्देश दिया गया था। उनका तर्क था कि वे मूल रिट याचिका में पक्षकार नहीं थे, फिर भी आदेश से उनके कानूनी अधिकार प्रभावित हुए हैं क्योंकि यह आपराधिक मामले से संबंधित है जिसमें वे अभियुक्त हैं।
चूंकि यह रिट याचिका उस आपराधिक मामले से संबंधित है जिसमें अपीलकर्ता अभियुक्त है, अतः वह आवश्यक और उपयुक्त पक्षकार है, अपीलकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता ने दलील दी। उन्होंने यह भी कहा कि एफआईआर 2019 में दर्ज हुई थी, चार्जशीट 2022 में दाखिल हुई, और रिट याचिका 2024 में बिना किसी देरी का कारण बताए दाखिल की गई, जिससे राजनीतिक उद्देश्य झलकते हैं।
वहीं, उत्तरदाता संख्या 1 (रिट याचिकाकर्ता) की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता ने जवाब में कहा कि अभियुक्त को जांच एजेंसी चुनने या प्रक्रिया में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने नर्मदा बाई बनाम गुजरात राज्य और रामचंद्रैया बनाम एम. मंजुला जैसे कई सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अभियुक्त जांच एजेंसी को लेकर आपत्ति नहीं कर सकता।
“भियुक्त को जांच के स्तर पर न तो सुनवाई का अधिकार है और न ही जांच एजेंसी की नियुक्ति को चुनौती देने का अधिकार है। इस स्तर पर प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत लागू नहीं होते, खंडपीठ ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुरूप टिप्पणी की।
हाईकोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अपीलकर्ता न तो रिट याचिका में पक्षकार थे और न ही उनके पास अनुच्छेद 226 के तहत जारी जांच के आदेश को चुनौती देने का वैधानिक अधिकार है। कोर्ट ने दोहराया कि केवल वे ही पक्षकार इस प्रकार के आदेशों को चुनौती दे सकते हैं जिनके अधिकार सीधे प्रभावित होते हों।
खंडपीठ ने कहा कि सीबीआई जांच का निर्देश देना, विशेषकर उन मामलों में जिनमें सार्वजनिक हित या अनुचित जांच का आरोप हो, पूरी तरह कोर्ट के विवेकाधिकार में आता है। अभियुक्त न तो इस निर्देश को चुनौती दे सकता है और न ही ऐसे मामलों में सुनवाई की मांग कर सकता है।
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“जब जांच किसी विशेष एजेंसी से कराने का मुद्दा हो, तो हाईकोर्ट अभियुक्त को न तो सुने और न ही उसे पक्षकार बनाए — यह उसकी बाध्यता नहीं है,” कोर्ट ने स्पष्ट किया।
सभी कानूनी निर्णयों और वैधानिक विश्लेषण की समीक्षा करने के बाद, खंडपीठ ने माना कि अपीलकर्ता के पास एकल पीठ के आदेश को चुनौती देने की कोई कानूनी स्थिति (locus standi) नहीं है।
मामले का शीर्षक (Case Title):
सहजाहान शेख और अन्य बनाम सुप्रिया मंडल गायेन और अन्य
मामला संख्या (Case Number):
एमएटी 1054 ऑफ 2025
(आईए संख्या: सीएएन 1 ऑफ 2025 और सीएएन 2 ऑफ 2025)