दिल्ली हाईकोर्ट ने 9 अक्टूबर 2025 को एक अहम फैसला सुनाते हुए शिक्षा निदेशालय (DoE) और अभिभावकों द्वारा दायर उन अपीलों को खारिज कर दिया जिनमें दो निजी अनुदान-रहित स्कूलों - ब्लूबेल्स इंटरनेशनल स्कूल, कैलाश और लिलावती विद्यापीठ, शक्ति नगर - की फीस वृद्धि को चुनौती दी गई थी। मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की पीठ ने कहा कि सरकार के पास फीस नियंत्रित करने की सीमित शक्ति है और वह स्कूलों के शुल्क निर्धारण में मनमाने तरीके से हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
पृष्ठभूमि
यह मामला 2018 और 2019 में शिक्षा निदेशालय द्वारा पारित आदेशों से शुरू हुआ था, जिनमें निजी अनुदान-रहित स्कूलों को सातवें वेतन आयोग के नाम पर फीस बढ़ाने से रोका गया था। DoE ने यह भी निर्देश दिया था कि यदि कोई बढ़ी हुई राशि अभिभावकों से ली गई हो तो उसे वापस किया जाए या अगले महीनों की फीस में समायोजित किया जाए।
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इन आदेशों से असंतुष्ट ब्लूबेल्स इंटरनेशनल और लिलावती विद्यापीठ ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। उनका तर्क था कि वे ऐसे निजी स्कूल हैं जो न तो सरकारी जमीन पर बने हैं और न ही सरकार से कोई अनुदान प्राप्त करते हैं, इसलिए उन्हें अपने वित्तीय प्रबंधन में स्वायत्तता प्राप्त है।
एकल न्यायाधीश ने इसी वर्ष उनके पक्ष में फैसला दिया था, जिसके खिलाफ शिक्षा निदेशालय और छात्रा रुमााना (अपने पिता के माध्यम से) सहित कुछ अभिभावकों ने अपील दायर की थी।
अदालत की टिप्पणियाँ
संबंधित तीनों अपीलों को एक साथ सुनते हुए खंडपीठ ने माना कि इन मामलों में समान कानूनी प्रश्न उठाए गए हैं। मुख्य न्यायाधीश उपाध्याय ने 41 पन्नों के इस फैसले के हिस्से पढ़ते हुए स्पष्ट किया कि सरकार की भूमिका नियंत्रण करने वाली नहीं, बल्कि निगरानी रखने वाली है।
"शिक्षा निदेशक को दिल्ली स्कूल शिक्षा अधिनियम, 1973 की धारा 17(3) के तहत यह सुनिश्चित करने का अधिकार है कि स्कूल मुनाफाखोरी, व्यावसायीकरण या कैपिटेशन फीस लेने में शामिल न हों," अदालत ने टिप्पणी की।
सुप्रीम कोर्ट के मॉडर्न स्कूल बनाम भारत संघ (2004) के ऐतिहासिक फैसले का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि फीस पर नियंत्रण केवल दुरुपयोग रोकने के लिए किया जा सकता है, न कि प्रत्येक शुल्क संरचना में हस्तक्षेप के लिए। अदालत ने यह भी दोहराया कि शैक्षणिक संस्थानों को उचित अधिशेष (सुरप्लस) कमाने की अनुमति है, बशर्ते वह शिक्षा के उद्देश्यों में ही पुनर्निवेश किया जाए।
फैसले में टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन, इस्लामिक एकेडमी ऑफ एजुकेशन और मॉडर्न डेंटल कॉलेज जैसे सुप्रीम कोर्ट के पुराने निर्णयों का हवाला देते हुए कहा गया कि शिक्षा को संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत एक पेशा (Occupation) माना गया है। इसलिए निजी स्कूलों को व्यवसायिक इकाई नहीं समझा जा सकता, लेकिन राज्य को भी उन पर पूर्ण नियंत्रण का अधिकार नहीं है।
“सरकार को निजी अनुदान-रहित स्कूलों की फीस संरचना तय करने का असीम अधिकार नहीं दिया जा सकता। नियंत्रण केवल मुनाफाखोरी और शोषण रोकने तक सीमित है,” अदालत ने स्पष्ट किया।
साथ ही, खंडपीठ ने यह भी कहा कि शिक्षा निदेशालय को अधिनियम की धाराओं 17, 18 और 24 के तहत स्कूलों के खातों की जांच करने का अधिकार बना रहता है। यदि धन के दुरुपयोग का मामला सामने आता है, तो विभाग कार्रवाई कर सकता है और जरूरत पड़ने पर स्कूल की मान्यता भी रद्द की जा सकती है।
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निर्णय
सरकारी वकील समीऱ वशिष्ठ (GNCTD की ओर से) और स्कूलों की ओर से अधिवक्ता कमल गुप्ता व खगेश झा के विस्तृत तर्क सुनने के बाद अदालत ने एकल न्यायाधीश के आदेश में हस्तक्षेप से इंकार कर दिया। शिक्षा निदेशालय और अभिभावकों की अपीलें खारिज कर दी गईं।
हालांकि, अदालत ने सरकार के लिए एक सीमित रास्ता खुला रखा। उसने कहा कि यदि विभाग को यह लगता है कि किसी स्कूल ने लाभ के नाम पर कानून का उल्लंघन किया है या छात्रों की फीस का गलत इस्तेमाल हुआ है, तो वह कानून के अनुसार नई जांच शुरू कर सकता है, परंतु ऐसा करने से पहले स्कूल को उचित सुनवाई का अवसर देना अनिवार्य होगा।
“यदि निदेशालय पाता है कि फीस का उपयोग कानून के अनुरूप नहीं है, तो वह कार्रवाई कर सकता है। परंतु यह अधिकार स्कूल की फीस तय या स्थिर करने तक नहीं बढ़ाया जा सकता,” अदालत ने कहा।
इस प्रकार, खंडपीठ ने निजी अनुदान-रहित स्कूलों की स्वायत्तता को बरकरार रखते हुए सरकार की सीमित किंतु आवश्यक नियामक भूमिका को दोहराया। अदालत ने किसी भी पक्ष पर लागत नहीं लगाई।
Case Title:- Rumana through Father Mr. Hemant and Others v. Bluebells International School, Kailash and Another