भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 8 अक्टूबर 2025 को एक महत्वपूर्ण फैसले में उद्योगपति महावीर अग्रवाल को बरी कर दिया, जिन पर बिजली मीटर में छेड़छाड़ कर लगभग ₹30 लाख की बिजली चोरी का आरोप था। अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष का पूरा मामला “अनुमानों, आकलनों और संभावनाओं” पर टिका था, ठोस सबूतों पर नहीं। अदालत ने इस प्रकार 1997 का बरी करने का आदेश बहाल कर दिया।
पृष्ठभूमि
महावीर, एम/एस रुशी स्टील्स एंड एलॉयज प्रा. लि., जालना के निदेशक थे। 1993 में महाराष्ट्र राज्य विद्युत मंडल (MSEB) ने पाया कि कंपनी की बिजली खपत में 36.6% का अंतर है - यानी मीटर पर दर्ज आंकड़े और वास्तविक आपूर्ति में भारी फर्क।
निरीक्षण के दौरान मीटर बॉक्स में तीन छेद पाए गए, जिनके बारे में अभियोजन का दावा था कि उनका उपयोग मीटर की रीडिंग को प्रभावित करने के लिए किया गया। इन निष्कर्षों के आधार पर एमएसईबी ने एफआईआर दर्ज की और मामला भारतीय विद्युत अधिनियम, 1910 की धारा 39 और 44 के तहत चलाया गया - जो क्रमशः बिजली चोरी और मीटर से छेड़छाड़ से संबंधित हैं।
ट्रायल कोर्ट ने 1997 में महावीर को बरी कर दिया, यह कहते हुए कि अभियोजन यह साबित नहीं कर सका कि बिजली की बेईमानी से चोरी हुई थी। लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट (औरंगाबाद बेंच) ने 2010 में यह फैसला पलटते हुए उन्हें एक साल की कठोर कारावास और ₹2 लाख जुर्माने की सजा सुनाई।
न्यायालय के अवलोकन
महावीर की अपील सुनते हुए न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने अभियोजन के पाँच गवाहों के बयान गहराई से परखे। अदालत ने पाया कि गवाहों के बयान विरोधाभासी, अस्पष्ट और तकनीकी रूप से अप्रमाणित थे।
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“गवाह संभावनाओं और अंदाज़े की भाषा में बोल रहे थे, निश्चितता की नहीं,” न्यायमूर्ति करोल ने टिप्पणी की। एक अधिकारी ने तो यह भी माना कि उसका निष्कर्ष “केवल अनुमान पर आधारित था, कोई ठोस तथ्य नहीं।”
एक अन्य गवाह ने स्वीकार किया कि टीम का निष्कर्ष “पूरी तरह अनुमान पर आधारित” था, बिना किसी परीक्षण के यह जांचे कि क्या वास्तव में छेदों से बिजली चोरी संभव थी। अदालत ने यह भी कहा कि किसी अधिकारी ने यह पुष्टि नहीं की कि ये छेद पहले से मौजूद थे या बाद में बनाए गए।
अदालत ने कहा, “अधिनियम के तहत दोष की धारणा अपने आप लागू नहीं होती,” यह तभी लागू होती है जब यह साबित हो जाए कि चोरी के लिए कृत्रिम साधन इस्तेमाल किए गए। अभियोजन, अदालत के अनुसार, यह साबित करने में असफल रहा।
पीठ ने सख्त लहजे में कहा -
“अधिकांश गवाहियों का आधार अनुमान, आकलन, संभावना या अटकलें हैं - यह कहना आवश्यक है कि ऐसा साक्ष्य पर्याप्त नहीं माना जा सकता।”
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फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 2010 के हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए ट्रायल कोर्ट का बरी करने का फैसला बहाल कर दिया। अदालत ने कहा कि विद्युत अधिनियम की धारा 39 और 44 के तहत अपराध संदेह से परे प्रमाणित नहीं हुआ, और अभियोजन कोई प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य सबूत पेश नहीं कर सका।
पीठ ने निष्कर्ष दिया:
“कई खुली संभावनाएँ हैं, जिनके बीच किसी व्यक्ति पर आपराधिक जिम्मेदारी तय नहीं की जा सकती। अतः अपीलें स्वीकृत की जाती हैं।”
इसके साथ ही महावीर के जमानत बांड रद्द कर दिए गए और सभी लंबित आवेदन निपटा दिए गए।
यह फैसला एक बार फिर अदालत की उस स्थायी याद दिलाने वाली बात को रेखांकित करता है कि - “संदेह कितना भी प्रबल क्यों न हो, वह प्रमाण का विकल्प नहीं बन सकता।” यही भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र की मूल आत्मा है।
Case: Mahaveer v. State of Maharashtra & Anr.
Citation: 2025 INSC 1206
Case Type: Criminal Appeal Nos. 2154–2155 of 2011
Date of Judgment: October 8, 2025