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हाई कोर्ट ने सिद्ध एलिबाई के आधार पर धारा 319 CrPC के तहत आरोपी को समन करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द किया

Shivam Yadav

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें नरेंद्र शर्मा को धारा 319 सीआरपीसी के तहत समन किया गया था, क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक सबूतों से उनका एलिबाई सिद्ध हो चुका था। कोर्ट के तर्क और कानूनी प्रभावों के बारे में जानें।

हाई कोर्ट ने सिद्ध एलिबाई के आधार पर धारा 319 CrPC के तहत आरोपी को समन करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द किया

एक महत्वपूर्ण फैसले में, मध्य प्रदेश हाई कोर्ट, ग्वालियर ने नरेंद्र शर्मा द्वारा दायर एक आपराधिक पुनर्विचार याचिका को स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें उन्हें दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 319 के तहत आरोपी के रूप में समन किया गया था। कोर्ट ने इलेक्ट्रॉनिक सबूतों और सिद्ध एलिबाई के महत्व पर जोर देते हुए ट्रायल कोर्ट के निर्णय में प्रक्रियात्मक कमियों को रेखांकित किया।

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मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला मेहगांव पुलिस स्टेशन में दर्ज एक एफआईआर से उत्पन्न हुआ, जिसमें आरोप लगाया गया था कि नरेंद्र शर्मा और अन्य ने एक समूह पर हमला किया, जिसके परिणामस्वरूप दो लोगों की मौत हो गई। शुरुआत में, शर्मा का नाम एफआईआर में शामिल था, लेकिन जांच के दौरान, CID को इलेक्ट्रॉनिक सबूत मिले, जिसमें CCTV फुटेज और मोबाइल लोकेशन डेटा शामिल थे, जिससे यह साबित हुआ कि घटना के समय वह ग्वालियर के श्री रामचंद्र मिशन हार्ट फुलनेस सेंटर में मौजूद थे—जो घटनास्थल से 60 किमी दूर था। इस आधार पर, जांच अधिकारी ने धारा 169 CrPC के तहत एक क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर शर्मा को बरी कर दिया।

हालांकि, ट्रायल के दौरान, शिकायतकर्ता ने धारा 319 CrPC के तहत एक आवेदन दाखिल कर शर्मा को आरोपी के रूप में समन करने की मांग की, जिसमें गवाहों के बयानों का हवाला दिया गया था। ट्रायल कोर्ट ने इस आवेदन को स्वीकार कर लिया, जिसके बाद शर्मा ने हाई कोर्ट का रुख किया।

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प्रमुख तर्क और कोर्ट का विश्लेषण

शर्मा के वकील ने तर्क दिया कि ट्रायल कोर्ट ने क्लोजर रिपोर्ट और इलेक्ट्रॉनिक सबूतों को नजरअंदाज कर दिया, जो स्पष्ट रूप से उनके एलिबाई को सिद्ध करते थे। उन्होंने यह भी कहा कि धारा 319 CrPC के तहत दायर आवेदन राजनीतिक उद्देश्य से प्रेरित था और उसमें कोई दम नहीं था।

वहीं, राज्य और शिकायतकर्ता ने गवाहों के बयानों और कानूनी मिसालों, जैसे कि हरदीप सिंह बनाम पंजाब राज्य (2014), का हवाला देते हुए तर्क दिया कि यदि प्राथमिक सबूत मौजूद हैं, तो ट्रायल कोर्ट के पास शर्मा को समन करने का अधिकार था।

हाई कोर्ट ने धारा 319 CrPC की जांच की, जो कोर्ट को अतिरिक्त आरोपियों को समन करने की अनुमति देती है यदि सबूत उनकी संलिप्तता का संकेत देते हैं। कोर्ट ने हरदीप सिंह के मामले में संविधान पीठ के दिशानिर्देशों का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि सबूत इतने मजबूत होने चाहिए कि यदि उनका खंडन नहीं किया जाता है, तो आरोपी को दोषी ठहराया जा सके।

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हाई कोर्ट ने देखा कि ट्रायल कोर्ट ने CID की क्लोजर रिपोर्ट और इलेक्ट्रॉनिक सबूतों पर विचार नहीं किया, जो स्पष्ट रूप से शर्मा की घटनास्थल से अनुपस्थिति को सिद्ध करते थे। कोर्ट ने लाभूजी अमृतजी ठाकोर बनाम गुजरात राज्य (2018) और जुहूर बनाम करीम (2023) का हवाला देते हुए दोहराया कि धारा 319 CrPC के लिए ठोस सबूतों की आवश्यकता होती है, न कि केवल आरोपों की।

"एलिबाई का दावा आत्मरक्षा के दावे के समान नहीं है। इसे शुरुआती चरण में उठाया जाना चाहिए और पूर्ण निश्चितता के साथ सिद्ध किया जाना चाहिए,"
- बॉम्बे हाई कोर्ट, आनंद शिवाजी घोडके बनाम महाराष्ट्र राज्य (2023)

कोर्ट ने आसद अली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2024) का भी उल्लेख किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने जोर देकर कहा था कि धारा 319 CrPC के तहत किसी आरोपी को समन करने से पहले ट्रायल कोर्ट को अपनी व्यक्तिपरक संतुष्टि दर्ज करनी चाहिए।

केस का शीर्षक: नरेंद्र शर्मा बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य

केस संख्या: CRR-6219-2024

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