केरल उच्च न्यायालय ने दीपा रानी एम द्वारा दायर एक रिट अपील को खारिज कर दिया है, जिसमें उन्होंने 2008 के एक फैसले को 4,133 दिनों (लगभग 11 साल) की भारी देरी के बाद चुनौती दी थी। न्यायमूर्ति सुश्रुत अरविंद धर्माधिकारी और न्यायमूर्ति पी.वी. बालकृष्णन की खंडपीठ ने कहा कि बिना किसी ठोस कारण के इतनी असाधारण देरी को माफ नहीं किया जा सकता।
पीठ ने 2019 के W.A. संख्या 1936 पर सुनवाई करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत न्यायिक विवेकाधिकार को लापरवाह वादियों को समायोजित करने के लिए अंतहीन रूप से नहीं बढ़ाया जा सकता है।
पृष्ठभूमि
पठानमथिट्टा जिले की निवासी दीपा रानी ने 2008 में हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की थी, जिसे एकल पीठ ने खारिज कर दिया था। मामला होम्योपैथी विभाग और लोक सेवा आयोग (PSC) से जुड़ा हुआ था।
अपील में कहा गया कि याचिकाकर्ता ने निर्णय की प्रमाणित प्रति जुलाई 2019 में मांगी और उसे अगस्त 2019 में प्राप्त हुई। उनके वकील एडवोकेट राजेश के. राजू ने दलील दी कि बीमारी और आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे पहले अपील दाखिल नहीं कर सकीं।
लेकिन राज्य सरकार और केरल लोक सेवा आयोग ने इसका विरोध करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता के कारण अस्पष्ट हैं और किसी विश्वसनीय प्रमाण से समर्थित नहीं हैं।
अदालत का अवलोकन
खंडपीठ ने कहा कि यह स्थापित सिद्धांत है कि देरी और ढिलाई (delay and laches) न्यायालय के विवेकाधीन राहत को बाधित कर सकते हैं।
न्यायमूर्ति धर्माधिकारी ने कई सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि न्याय चौकसी चाहता है, निद्रा नहीं।
Karnataka Power Corporation Ltd. बनाम K. Thangappan (2006) 4 SCC 322 मामले का उल्लेख करते हुए पीठ ने कहा:
“देरी या ढिलाई वह कारक है जिसे विवेकाधीन शक्तियों के प्रयोग में ध्यान में रखना चाहिए। यदि लापरवाही या उपेक्षा स्पष्ट हो, तो अदालत राहत देने से इंकार कर सकती है।”
आगे M.P. Ram Mohan Raja बनाम State of Tamil Nadu (2007) 9 SCC 78 का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि देरी माफी का कोई स्थायी नियम नहीं है, परंतु औचित्य संतोषजनक और प्रमाणिक होना चाहिए।
“जो व्यक्ति वर्षों तक अपने अधिकारों पर चुप बैठा रहा, वह बाद में न्यायिक सहानुभूति का पात्र नहीं हो सकता,” अदालत ने कहा।
न्यायमूर्तियों ने जोर दिया कि अदालतें उन मामलों को पुनर्जीवित करने के लिए नहीं हैं जिन्हें खुद पक्षकारों ने अपनी निष्क्रियता से छोड़ दिया हो। उन्होंने कहा,
“यहां तक कि जब मौलिक अधिकार शामिल हों, तब भी अदालत का विवेक न्यायसंगत और विवेकपूर्ण होना चाहिए, न कि यांत्रिक।”
Shiv Dass बनाम Union of India (2007) 9 SCC 274 के मामले का उल्लेख करते हुए अदालत ने याद दिलाया कि विलंबित याचिकाएं सामान्यतः खारिज कर दी जानी चाहिए, जब तक कोई असाधारण परिस्थिति न हो।
दीपा रानी के मामले में अदालत ने पाया कि उन्होंने न तो तत्परता दिखाई और न ही बीमारी का कोई पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत किया जिससे इतनी लंबी देरी उचित ठहराई जा सके।
निर्णय
विस्तृत सुनवाई के बाद अदालत ने पाया कि 11 साल की देरी का कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है।
पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता द्वारा बताए गए कारण विश्वसनीय साक्ष्यों से रहित हैं और न्यायालय को संतुष्ट नहीं कर सकते।
न्यायमूर्ति धर्माधिकारी ने कहा:
“देरी अत्यधिक है - 4,000 से अधिक दिन - और बताए गए कारण बिल्कुल भी विश्वसनीय नहीं हैं। हम अपीलकर्ता को कोई राहत देने का औचित्य नहीं देखते।”
इसलिए अदालत ने देरी माफी याचिका (C.M. Appl. No. 2 of 2019) को खारिज करते हुए रिट अपील (W.A. No. 1936 of 2019) भी खारिज कर दी।
फैसले के अंत में अदालत ने चेतावनी भरे शब्दों में कहा:
“जो अपने अधिकारों पर सोते रहते हैं, अदालतें उनका उद्धार नहीं कर सकतीं। न्याय की आत्मा सतर्कता है।”
इसके साथ ही मामला समाप्त हो गया - यह याद दिलाते हुए कि कानूनी उपाय भले ही खुले हों, वे अनंत नहीं होते।
Case Title: Deepa Rani M vs The State of Kerala & Others
Case Number: Writ Appeal No. 1936 of 2019
Judgment Date: 17 October 2025 (Friday)