भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में मानसिक स्वास्थ्य को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के मौलिक अधिकार का अविभाज्य हिस्सा घोषित किया है। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को सशक्त बनाना है, न कि उसे मानसिक रूप से कुचलना, और विशेष रूप से कोचिंग संस्थानों में बढ़ते मानसिक दबाव और प्रतिस्पर्धा को लेकर चिंता जताई।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने यह टिप्पणी करते हुए छात्रों की मानसिक भलाई सुनिश्चित करने के लिए 15 बाध्यकारी राष्ट्रीय दिशानिर्देश जारी किए। कोर्ट ने भारत की शिक्षा प्रणाली में रैंक और परिणाम केंद्रित संस्कृति को जहरीला बताया और छात्रों के लिए एक सम्मानजनक, उद्देश्यपूर्ण और मानसिक स्वतंत्रता आधारित शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया।
“शिक्षा का उद्देश्य छात्र को मुक्त करना है, न कि उसे बोझिल बनाना। इसकी सच्ची सफलता ग्रेड या रैंक में नहीं, बल्कि ऐसे व्यक्ति के समग्र विकास में है जो गरिमा, आत्मविश्वास और उद्देश्य के साथ जीवन जी सके।” — सुप्रीम कोर्ट
दबाव के चक्र में फंसे छात्र
कोर्ट ने कहा कि प्रदर्शन आधारित शिक्षा प्रणाली छात्रों को निरंतर परीक्षाओं, रैंकिंग और सामूहिक अपेक्षाओं के चक्रव्यूह में फंसा देती है। जिज्ञासा को दबाया जाता है, और असफलता को विकास की प्रक्रिया का हिस्सा न मानकर अंत के रूप में देखा जाता है। विशेष रूप से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों के बीच यह प्रणाली गंभीर मानसिक स्वास्थ्य संकट पैदा कर रही है।
“छात्र अक्सर ऐसी व्यवस्था में फंसे होते हैं जहां जिज्ञासा से ज्यादा अनुरूपता, समझ से ज्यादा परिणाम और भलाई से ज्यादा सहनशक्ति को महत्व दिया जाता है।” — पीठ की टिप्पणी
अनुच्छेद 21: जीवन और गरिमा के लिए मानसिक स्वास्थ्य आवश्यक
इस निर्णय में दोहराया गया कि मानसिक स्वास्थ्य, अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का केंद्रीय हिस्सा है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यह अधिकार केवल पशुवत जीवन नहीं बल्कि गरिमा, स्वायत्तता और मानसिक भलाई को भी सुनिश्चित करता है। इस संदर्भ में कोर्ट ने शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत सरकार और नवतेज सिंह जोहर बनाम भारत सरकार जैसे मामलों का हवाला दिया, जहां मानसिक अखंडता और स्वायत्तता को मानव गरिमा का अनिवार्य हिस्सा माना गया।
इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 को एक महत्वपूर्ण कानूनी पहल बताया गया। इस अधिनियम की धारा 18 सभी के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की गारंटी देती है और धारा 115 आत्महत्या के प्रयास को अपराध से हटाकर सहायता और देखभाल के दृष्टिकोण की ओर संकेत करती है।
“मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम एक व्यापक संवैधानिक दृष्टिकोण को दर्शाता है, जो आत्म-हानि को रोकने और विशेष रूप से छात्रों एवं युवाओं के बीच भलाई को बढ़ावा देने के लिए उत्तरदायी कानूनी ढांचे की आवश्यकता को मान्यता देता है।” — सुप्रीम कोर्ट
भारत की वैश्विक जिम्मेदारी और अंतरराष्ट्रीय कानून
कोर्ट ने अपने फैसले को अंतरराष्ट्रीय दायित्वों पर भी आधारित किया। इसमें अंतरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अनुबंध (ICESCR) और विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर कन्वेंशन (CRPD) जैसे उपकरणों का उल्लेख किया गया। इन संधियों के तहत भारत पर यह जिम्मेदारी है कि वह गैर-भेदभावपूर्ण और सुलभ मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सुनिश्चित करे, जिसमें आत्महत्या की रोकथाम भी शामिल हो।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की मानसिक स्वास्थ्य कार्य योजना 2013–2020 का भी उल्लेख किया गया, जिसमें आत्महत्या को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्राथमिकता घोषित किया गया है और राष्ट्र स्तर की रणनीति, स्कूल-आधारित हस्तक्षेप, और सामुदायिक समर्थन तंत्र को आवश्यक बताया गया है।
“आत्महत्या की रोकथाम केवल एक नीति उद्देश्य नहीं, बल्कि जीवन, स्वास्थ्य और मानव गरिमा से संबंधित एक कानूनी बाध्यता है।” — सुप्रीम कोर्ट
छात्रों के लिए 15 दिशानिर्देश जारी
न्यायालय ने संवैधानिक आदेशों और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद, शैक्षणिक परिवेश में छात्रों की आत्महत्याओं से निपटने के लिए एक एकीकृत कानूनी तंत्र के अभाव पर गौर किया। इसलिए, न्यायालय ने 15 प्रवर्तनीय दिशानिर्देश जारी किए जो उचित कानून लागू होने तक पूरे देश में बाध्यकारी हैं। ये सभी शैक्षणिक संस्थानों और कोचिंग संस्थानों में छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए बनाए गए हैं।
केस का शीर्षक: सुकदेब साहा बनाम आंध्र प्रदेश राज्य एवं अन्य।