केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने संसद में यह स्पष्ट कर दिया है कि केंद्र सरकार की संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द हटाने की फिलहाल कोई योजना नहीं है।
यह बयान समाजवादी पार्टी के सांसद रामजी लाल सुमन के सवाल के जवाब में आया, जिन्होंने कुछ सामाजिक संगठनों के पदाधिकारियों द्वारा इन शब्दों को हटाने के लिए माहौल बनाने की कोशिशों को लेकर चिंता जताई थी।
“कुछ सामाजिक संगठनों के पदाधिकारियों द्वारा बनाए गए माहौल के संदर्भ में, यह संभव है कि कुछ समूह इन शब्दों पर पुनर्विचार के लिए राय व्यक्त कर रहे हों या समर्थन कर रहे हों। ऐसी गतिविधियाँ इस विषय पर जनचर्चा या वातावरण उत्पन्न कर सकती हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह सरकार की आधिकारिक स्थिति या कार्रवाई है।”— केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल का संसद में बयान
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उन्होंने कहा कि प्रस्तावना में किसी भी प्रकार का संशोधन व्यापक चर्चा और आम सहमति के बिना नहीं किया जा सकता, और वर्तमान में सरकार ने ऐसी किसी प्रक्रिया की शुरुआत नहीं की है।
“सरकार का आधिकारिक रुख यह है कि संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्षता’ शब्दों को हटाने की वर्तमान में कोई योजना या मंशा नहीं है।”
— अर्जुन राम मेघवाल
यह दोनों शब्द संविधान में 42वें संशोधन (1976) के माध्यम से जोड़े गए थे, जो आपातकाल की अवधि के दौरान हुआ था। ये शब्द भारतीय संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांतों का हिस्सा हैं और कई ऐतिहासिक सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में इनका समर्थन किया गया है।
नवंबर 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ मामले में फैसला सुनाते हुए 42वें संशोधन की वैधता को बरकरार रखा और इन शब्दों को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया।
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“यह तथ्य कि रिट याचिकाएं 2020 में दायर की गईं, जबकि ये शब्द पिछले 44 वर्षों से प्रस्तावना का हिस्सा हैं, याचिकाओं को विशेष रूप से संदेहास्पद बनाता है... ये शब्द ‘हम भारत के लोग’ द्वारा पूरी तरह से स्वीकार कर लिए गए हैं और उनके अर्थों को लेकर कोई भ्रम नहीं है।”— सुप्रीम कोर्ट, डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2024)
अदालत ने यह भी कहा कि पंथनिरपेक्षता का सीधा संबंध समानता के अधिकार से है, जबकि समाजवाद का अर्थ है आर्थिक और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना, जिससे कोई नागरिक सामाजिक या आर्थिक स्थिति के कारण पीछे न रह जाए।
“भारतीय ढांचे में, समाजवाद आर्थिक और सामाजिक न्याय के सिद्धांत को दर्शाता है, जिसमें राज्य यह सुनिश्चित करता है कि कोई नागरिक सामाजिक या आर्थिक स्थिति के कारण वंचित न हो।”— सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
समाजवाद और पंथनिरपेक्षता को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना गया है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) फैसले में बताया था। इसके अलावा एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में भी पंथनिरपेक्षता को संविधान की आत्मा बताया गया था।
हालांकि 44वें संशोधन के जरिए 42वें संशोधन को पलटने का प्रयास किया गया था, फिर भी ये दोनों शब्द अस्पृश्य बने रहे और आज भी भारत के संवैधानिक चरित्र का अभिन्न हिस्सा हैं।